ऋग्वेद - मण्डल 7/ सूक्त 18/ मन्त्र 14
नि ग॒व्यवोऽन॑वो द्रु॒ह्यव॑श्च ष॒ष्टिः श॒ता सु॑षुपुः॒ षट् स॒हस्रा॑। ष॒ष्टिर्वी॒रासो॒ अधि॒ षड् दु॑वो॒यु विश्वेदिन्द्र॑स्य वी॒र्या॑ कृ॒तानि॑ ॥१४॥
स्वर सहित पद पाठन् । ग॒व्यवः॑ । अन॑वः । दु॒ह्यवः॑ । च॒ । ष॒ष्टिः । श॒ता । सु॒सु॒पुः॒ । षट् । स॒हस्रा॑ । ष॒ष्टिः । वी॒रासः॑ । अधि॑ । षट् । दु॒वः॒ऽयु । विश्वा॑ । इत् । इन्द्र॑स्य । वी॒र्या॑ । कृ॒तानि॑ ॥
स्वर रहित मन्त्र
नि गव्यवोऽनवो द्रुह्यवश्च षष्टिः शता सुषुपुः षट् सहस्रा। षष्टिर्वीरासो अधि षड् दुवोयु विश्वेदिन्द्रस्य वीर्या कृतानि ॥१४॥
स्वर रहित पद पाठनि। गव्यवः। अनवः। दुह्यवः। च। षष्टिः। शता। सुसुपुः। षट्। सहस्रा। षष्टिः। वीरासः। अधि। षट्। दुवःऽयु। विश्वा। इत्। इन्द्रस्य। वीर्या। कृतानि ॥१४॥
ऋग्वेद - मण्डल » 7; सूक्त » 18; मन्त्र » 14
अष्टक » 5; अध्याय » 2; वर्ग » 26; मन्त्र » 4
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अष्टक » 5; अध्याय » 2; वर्ग » 26; मन्त्र » 4
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
राजादिमनुष्यैः कियद्बलं वर्धयितव्यमित्याह ॥
अन्वयः
यैरिन्द्रस्य विश्वेद् वीर्या कृतानि ते गव्यवो द्रुह्यवोऽनवः षष्टिर्वीरासः षट्सहस्रा शत्रूनधिविजयन्ते ते च षट्षष्टिः शता शत्रवः दुवोयु निसुषुपुः ॥१४॥
पदार्थः
(नि) नितराम् (गव्यवः) आत्मनो गां भूमिमिच्छवः (अनवः) मनुष्याः। अनव इति मनुष्यनाम। (निघं०२.३)। (द्रुह्यवः) ये दुष्टानधार्मिकान् द्रुह्यन्ति जिघांसन्ति (षष्टिः) (शता) शतानि (सुषुपुः) स्वपेयुः (षट्) (सहस्रा) सहस्राणि (षष्टिः) एतत्संख्याकाः (वीरासः) शरीरात्मबलशौर्योपेताः (अधि) (षट्) (दुवोयु) यो दुवः परिचरणं कामयते तस्मै (विश्वा) सर्वाणि (इत्) एव (इन्द्रस्य) परमैश्वर्ययुक्तस्य राज्ञः (वीर्या) वीर्याणि (कृतानि) निष्पादितानि ॥१४॥
भावार्थः
यत्र राजा प्रजासेनयोः प्रजासेने च विद्युदिव पूरणबलां पराक्रमयुक्तां सेनां वर्द्धयन्ति तत्र षष्टिरपि योद्धारो षट् सहस्राण्यपि शत्रून् विजेतुं शक्नुवन्ति ॥१४॥
हिन्दी (3)
विषय
राजादि मनुष्यों से कितना बल बढ़वाना चाहिये, इस विषय को अगले मन्त्र में कहते हैं ॥
पदार्थ
जिन्होंने (इन्द्रस्य) परमैश्वर्ययुक्त राजा के (विश्वा) समस्त (इत्) ही (वीर्या) पराक्रम (कृतानि) उत्पन्न किये वे (गव्यवः) अपने को भूमि चाहते (द्रुह्यवः) और दुष्ट अधर्मी जनों को मारने की इच्छा करते हुए (अनवः, षष्टिः, वीरासः) साठ वीर अर्थात् शरीर और आत्मा के बल और शूरता से युक्त मनुष्य (षट् सहस्रा) छः सहस्र शत्रुओं को (अधि) अधिकता से जीतते हैं वे (च) भी (षट्, षष्टिः, शता) छासठ सैंकड़े शत्रु (दुवोयु) जो सेवन की कामना करता है, उसके लिये (नि, सुषुपुः) निरन्तर सोते हैं ॥१४॥
भावार्थ
जहाँ राजा और प्रजा सेनाओं में प्रजा और सेना बिजुली के समान पूरण बल और पराक्रम युक्त सेना को बढ़वाते हैं, वहाँ साठ योद्धा छः हजार शत्रुओं को भी जीत सकते हैं ॥१४॥
विषय
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भावार्थ
( गव्यवः ) गौ आदि पशु और भूमियों की चाहना करने वाले ( अनवः ) मनुष्य युद्धार्थी लोग भी जो (षष्टिः शता, अधि षष्टिः षट् ) साठ सौ अर्थात् ६ सहस्र और छः सहस्रों पर ६६ अधिक संख्या में ( दुवोयु ) सेवकों के स्वामी के सुख के लिये ( नि सुषुपुः ) बड़े सुख से सोते हैं, इसी प्रकार ( द्रुह्मवाचः षट् सहस्रा अधि षष्टिः षट् ) द्रोह करने वाले विरोधी लोग भी ६०६६ संख्या में ( दुवोयु) स्वामी के सुख के लिये ( अधि सुषुपुः ) भूमि पर पड़े सोते हैं । अर्थात् मारे जाते हैं, ( विश्वा इत् ) ये सब ( इन्द्रस्य कृतानि वीर्या ) ऐश्वर्ययुक्त, शत्रुहन्ता राजा के ही करने योग्य कार्य हैं । अर्थात् दोनों ओर से ६।६ सहस्रों की सेनाओं का खड़े होना, छावनी में पड़े रहना, लड़ना, मारे जाना आदि कार्य राजाओं के निमित्त ही होते हैं ।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
वसिष्ठ ऋषिः ॥ १–२१ इन्द्रः । २२ – २५ सुदासः पैजवनस्य दानस्तुतिर्देवता ॥ छन्दः – १, १७, २१ पंक्ति: । २, ४, १२, २२ भुरिक् पंक्तिः । ८, १३, १४ स्वराट् पंक्ति: । ३, ७ विराट् त्रिष्टुप् । ५, ९ , ११, १६, १९, २० निचृत्त्रिष्टुप् । ६, १०, १५, १८, २३, २४, २५ त्रिष्टुप् ॥ । पञ्चविंशत्यृचं सूक्तम् ।।
विषय
३३[१/३]+६६[२/३]=१००
पदार्थ
[१] (गव्यवः) = ज्ञान की वाणियों की कामनावाले, (अनवः) = [अन प्राणने] प्राणसाधना में प्रवृत्त होनेवाले, (च) = र इस प्रकार (द्रुह्यवः) = काम-क्रोध आदि शत्रुओं की जिघांसावाले पुरुष (षष्टिः शता) = छह सौ और (षट् सहस्रा) = छह सहस्र, अर्थात् जीवन के - १०० वर्ष के आयुष्य के १२०० दिन तो, अर्थात् लगभग ३३ वर्ष तो (निसुषुपुः) = निश्चय से सोते हैं । १०० वर्ष के जीवन में ३३ के लगभग वर्ष निद्रा में व्यतीत हो जाते हैं। अवशिष्ट (षट् अधि षष्टिः) = छह अधिक साठ, अर्थात् छयासठ [६६] वर्ष ये (दुवोयु) = स्वकर्तव्य कर्मों के करने के द्वारा प्रभु की परिचर्या की कामना वाले होते हैं। [२] इस प्रकार जीवन में जागृति के सारे काल को कर्तव्य कर्मों के करने में बिताने के द्वारा प्रभु-पूजन करते हुए ये व्यक्ति ही (वीरासः) = वीर होते हैं । वस्तुतः (इन्द्रस्य) = इस जितेन्द्रिय पुरुष के विश्वा कृतानि सब कर्म वीर्या शक्तिशाली होते हैं। श्रद्धा और विद्या से कर्मों को करता हुआ यह उन्हें शक्तिसम्पन्न बनाता है।
भावार्थ
भावार्थ- जीवन में ३३ वर्ष के निद्रा काल के अतिरिक्त ६६ वर्ष हमारे कर्तव्यपालन द्वारा प्रभु-पूजन में ही बीतने चाहिएँ। यही वीर बनना है। यही इन्द्र बनकर शक्तिशाली कर्मों को करना है। इसके लिये हमारा मार्ग 'ज्ञान प्राप्ति + आराधना व काम-क्रोध आदि की जिघांसा' का होना चाहिए।
मराठी (1)
भावार्थ
जेथे राजा व प्रजा विद्युतप्रमाणे बल व पराक्रमयुक्त सेना वर्धित करतात तेथे साठ योद्धे सहा हजार शत्रूंना जिंकू शकतात. ॥ १४ ॥
इंग्लिश (1)
Meaning
All the wondrous deeds of the world are accomplished by Indra, since sixty-six of his brave warriors devoted to their lord, all fervent, new and ferocious fighters dedicated to the land and light, send to eternal sleep sixty six thousand of his enemies.
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