ऋग्वेद - मण्डल 7/ सूक्त 18/ मन्त्र 17
आ॒ध्रेण॑ चि॒त्तद्वेकं॑ चकार सिं॒ह्यं॑ चि॒त्पेत्वे॑ना जघान। अव॑ स्र॒क्तीर्वे॒श्या॑वृश्च॒दिन्द्रः॒ प्राय॑च्छ॒द्विश्वा॒ भोज॑ना सु॒दासे॑ ॥१७॥
स्वर सहित पद पाठआ॒ध्रेण॑ । चि॒त् । तत् । ऊँ॒ इति॑ । एक॑म् । च॒का॒र॒ । सिं॒ह्य॑म् । चि॒त् । पेत्वे॑न । ज॒घा॒न॒ । अव॑ । स्र॒क्तीः । वे॒श्या॑ । अ॒वृ॒श्च॒त् । इन्द्रः॑ । प्र । अ॒य॒च्छ॒त् । विश्वा॑ । भोज॑ना । सु॒ऽदासे॑ ॥
स्वर रहित मन्त्र
आध्रेण चित्तद्वेकं चकार सिंह्यं चित्पेत्वेना जघान। अव स्रक्तीर्वेश्यावृश्चदिन्द्रः प्रायच्छद्विश्वा भोजना सुदासे ॥१७॥
स्वर रहित पद पाठआध्रेण। चित्। तत्। ऊँ इति। एकम्। चकार। सिंह्यम्। चित्। पेत्वेन। जघान। अव। स्रक्तीः। वेश्या। अवृश्चत्। इन्द्रः। प्र। अयच्छत्। विश्वा। भोजना। सुऽदासे ॥१७॥
ऋग्वेद - मण्डल » 7; सूक्त » 18; मन्त्र » 17
अष्टक » 5; अध्याय » 2; वर्ग » 27; मन्त्र » 2
Acknowledgment
अष्टक » 5; अध्याय » 2; वर्ग » 27; मन्त्र » 2
Acknowledgment
भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
के शत्रून् विजेतुमर्हन्तीत्याह ॥
अन्वयः
य इन्द्रो स्रक्तीर्वेश्यावृश्चत् आध्रेण चित्तदेकमु चकार सिह्यं चित्पेत्वेनाव जघान विश्वा भोजना प्रायच्छत्तस्मिन् सुदासे सति वीरा कथं न शत्रून् विजयेरन् ॥१७॥
पदार्थः
(आध्रेण) समन्तात् घृतेन (चित्) अपि (तत्) (उ) वितर्के (एकम्) (चकार) करोति (सिंह्यम्) सिंहेषु भवं बलमिव (चित्) इव [एव] (पेत्वेन) प्रापणेन। अत्र संहितायामिति दीर्घः। (जघान) हन्ति (अव) (स्रक्तीः) सृज्यमानाः सेनाः (वेश्या) वेशी प्रवेशयित्री सूची तथा (अवृश्चत्) वृश्चति छिनत्ति (इन्द्रः) दुष्टदलविदारकः (प्र) (अयच्छत्) प्रयच्छति ददाति (विश्वा) सर्वाणि (भोजना) भोजनानि अन्नादीनि (सुदासे) सुष्ठु दातरि सति ॥१७॥
भावार्थः
अत्रोपमालङ्कारः । ये वीराः सिंहवत् पराक्रम्य शत्रून् घ्नन्त्यखण्डितमेकं राज्यं भूगोले कर्तुं प्रयतन्ते ते समग्रं बलं विधाय वीरान् सत्कृत्य धीमद्भिः राज्यं शासितुं प्रवर्तेरन् ॥१७॥
हिन्दी (3)
विषय
कौन शत्रुओं के जीतने में योग्य होते हैं, इस विषय को अगले मन्त्र में कहते हैं ॥
पदार्थ
जो (इन्द्रः) दुष्टों के समूह को विदारनेवाला (स्रक्तीः) रची हुई सेनाओं को (वेश्या) सूचना से (अवृश्चत्) छिन्न-भिन्न करता (आध्रेण) सब ओर से धारण किये विषय से (चित्) ही (तत्) उस (एकम्, उ) एक को (चकार) सिद्ध करता (सिंह्यम्) सिंहों में उत्पन्न हुए बल के समान (चित्) ही (पेत्वेन) पहुँचाने से (अव, जघान) शत्रुओं को मारता और (विश्वा) समस्त (भोजना) अन्नादि पदार्थों को (प्र, अयच्छत्) देता है उस (सुदासे) अच्छे देनेवाले के होते वीरजन कैसे नहीं शत्रुओं को जीतें ॥१७॥
भावार्थ
इस मन्त्र में उपमालङ्कार है । जो वीर सिंह के समान पराक्रम पर शत्रुओं को मारते हैं और भूगोल में एक अखण्डित राज्य करने को अच्छा यत्न करते हैं, वे समग्र बल को विधान कर और वीरों को सत्कार कर बुद्धिमानों से राज्य की शिक्षा दिलाने को प्रवृत्त हों ॥१७॥
विषय
'इन्द्र' पदस्थ राजा के कर्त्तव्य ।
भावार्थ
वह 'इन्द्र' पद पर स्थित राजा, ( आध्रेण चित्) सब प्रकार से रक्षित सैन्य बल ( तत् उ ) उस समस्त राष्ट्र को ( एकं चकार ) एक द्वितीय साम्राज्य बना लेता है । (पेत्वेन) अश्व सैन्य या पालक बल के सामर्थ्य से ( सिह्यं चित् ) सिंह के समान शत्रु को भी ( आजघान ) आघात करे । वह ( इन्द्रः ) ऐश्वर्यवान् राजा ( वेश्या ) भीतर दुर्गादि में भी प्रवेश करने वाली सूची व्यूहादि के आकार की तीक्ष्ण सेना से (स्रक्ती:) मालाओं के समान लम्बी और राष्ट्र को घेरने वाली शत्रु सेनाओं ( आवृश्चत् ) बनों को परशु के समान काट गिरावे । और ( सुदासे) उत्तम, शुभ कल्याण दान देने वाले, प्रजा वर्ग को ( विश्वा भोजना ) सब प्रकार के रक्षा के साधन और भोग्य ऐश्वर्य भी ( प्रायच्छत् ) प्रदान करे ।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
वसिष्ठ ऋषिः ॥ १–२१ इन्द्रः । २२ – २५ सुदासः पैजवनस्य दानस्तुतिर्देवता ॥ छन्दः – १, १७, २१ पंक्ति: । २, ४, १२, २२ भुरिक् पंक्तिः । ८, १३, १४ स्वराट् पंक्ति: । ३, ७ विराट् त्रिष्टुप् । ५, ९ , ११, १६, १९, २० निचृत्त्रिष्टुप् । ६, १०, १५, १८, २३, २४, २५ त्रिष्टुप् ॥ । पञ्चविंशत्यृचं सूक्तम् ।।
विषय
पंगुं लङ्घयते गिरिम्
पदार्थ
[१] (आध्रेण) = आधार देने योग्य, अर्थात् लंगड़े [लूले] पुरुष से (चित्) = भी (तद् उ) = उस विलक्षण ही (एकम्) = अद्वितीय कर्म को पर्वत लंघन आदि असंभावनीय कर्मों को (चकार) = वे प्रभु करा देते हैं। (सिंह्यं चित्) = प्रकृष्ट वय [बड़ी उमर] के शेर को भी (पेत्वेन) = [पेत्व= A Ram] मेढ़े से आजघान मरवा देते हैं । [२] वह (इन्द्रः) = सर्वशक्तिमान् प्रभु (वेश्या) = सूई के द्वारा ही (स्त्रक्ती:) = [यूपादे: अश्रीन्] बड़े-बड़े स्तम्भों के कोनों को [अश्रि Corner] (अव अवृश्चत्) = छिन्न कवा देते हैं। ये प्रभु ही (सुदासे) = सम्यक् शत्रुओं का उपक्षय करनेवाले पुरुष के लिये (विश्वा भोजना) = सब भोजनों को (प्रायच्छत्) = प्राप्त कराते हैं। प्रभु के उपासक में एक अद्भुत शक्ति आ जाती है। उस अद्भुत शक्ति से वह उन कार्यों को करता दिखता है जो असम्भव से प्रतीत होते हैं। इन्हीं को सामान्य भाषा में miracles [आश्चर्यजनक कर्म] कहते हैं।
भावार्थ
भावार्थ-प्रभु लंगड़े को यदि पर्वत लंघा देते हैं तो शेर को मेढ़े से मरवा देते हैं और सूई से बड़े-बड़े स्तम्भों के कोनों को छिन्न करवा देते हैं। ये प्रभु ही काम-क्रोध आदि का उपक्षय करनेवाले सुदास के लिये सब भोजनों को देते हैं।
मराठी (1)
भावार्थ
या मंत्रात उपमालंकार आहे. जे वीर लोक सिंहाप्रमाणे पराक्रम करून शत्रूंना मारतात व भूगोलात एक अखंडित राज्य बनविण्याचा उत्तम प्रयत्न करतात, त्यांनी संपूर्ण बल एकवटावे व वीरांचा सत्कार करून बुद्धिमानांना राज्य शासित करण्यास प्रवृत्त करावे. ॥ १७ ॥
इंग्लिश (1)
Meaning
By patience, fortitude and stabilized power, Indra, destroyer of evil and enmity, unites and consolidates the world into one socio-political order. With limited but committed powers of love and creativity, he defeats the tigers of violence and destruction. With pointed advance like the penetration of a needle, he routs deep formations of hostility and opposition. And thus he provides all sustenance and peaceful comfort and prosperity for a happy and generous humanity.
Acknowledgment
Book Scanning By:
Sri Durga Prasad Agarwal
Typing By:
N/A
Conversion to Unicode/OCR By:
Dr. Naresh Kumar Dhiman (Chair Professor, MDS University, Ajmer)
Donation for Typing/OCR By:
N/A
First Proofing By:
Acharya Chandra Dutta Sharma
Second Proofing By:
Pending
Third Proofing By:
Pending
Donation for Proofing By:
N/A
Databasing By:
Sri Jitendra Bansal
Websiting By:
Sri Raj Kumar Arya
Donation For Websiting By:
Shri Virendra Agarwal
Co-ordination By:
Sri Virendra Agarwal