ऋग्वेद - मण्डल 7/ सूक्त 37/ मन्त्र 3
उ॒वोचि॑थ॒ हि म॑घवन्दे॒ष्णं म॒हो अर्भ॑स्य॒ वसु॑नो विभा॒गे। उ॒भा ते॑ पू॒र्णा वसु॑ना॒ गभ॑स्ती॒ न सू॒नृता॒ नि य॑मते वस॒व्या॑ ॥३॥
स्वर सहित पद पाठउ॒वोचि॑थ । हि । म॒घ॒ऽव॒न् । दे॒ष्णम् । म॒हः । अर्भ॑स्य । वसु॑नः । वि॒ऽभा॒गे । उ॒भा । ते॒ । पू॒र्णा । वसु॑ना । गभ॑स्ती॒ इति॑ । न । सू॒नृता॑ । नि । य॒म॒ते॒ । व॒स॒व्या॑ ॥
स्वर रहित मन्त्र
उवोचिथ हि मघवन्देष्णं महो अर्भस्य वसुनो विभागे। उभा ते पूर्णा वसुना गभस्ती न सूनृता नि यमते वसव्या ॥३॥
स्वर रहित पद पाठउवोचिथ। हि। मघऽवन्। देष्णम्। महः। अर्भस्य। वसुनः। विऽभागे। उभा। ते। पूर्णा। वसुना। गभस्ती इति। न। सूनृता। नि। यमते। वसव्या ॥३॥
ऋग्वेद - मण्डल » 7; सूक्त » 37; मन्त्र » 3
अष्टक » 5; अध्याय » 4; वर्ग » 3; मन्त्र » 3
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अष्टक » 5; अध्याय » 4; वर्ग » 3; मन्त्र » 3
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
पुनर्धनाढ्याः कस्मै दानं दद्युरित्याह ॥
अन्वयः
हे मघवन् ! हि यतस्त्वं महोऽर्भस्य वसुनो विभागे देष्णमुवोचिथ यस्य त उभा गभस्ती वसुना पूर्णा वर्त्तेते तस्य तव वसव्या सूनृता वाक् केनापि न नि यमते ॥३॥
पदार्थः
(उवोचिथ) उपदिश (हि) (मघवन्) बहुधनयुक्त (देष्णम्) दातुं योग्यम् (महः) (अर्भस्य) अल्पस्य (वसुनः) धनस्य (विभागे) विभजन्ति यस्मिँस्तस्मिन् (उभा) उभौ (ते) तव (पूर्णा) पूर्णौ (वसुना) धनेन (गभस्ती) हस्तौ (न) निषेधे (सूनृता) सत्यप्रियवाणी (नि) (यमते) (वसव्या) वसुषु धनेषु साध्वी ॥३॥
भावार्थः
ये धनाढ्याः महतोऽल्पस्य धनस्य सुपात्रकुपात्रयोर्धर्माधर्मयोर्विभागेन सुपात्रधर्मवृद्धये च धनदानं कुर्वन्ति तेषां कीर्तिश्चिरन्तनी भवति ॥३॥
हिन्दी (3)
विषय
फिर धनाढ्य किस को दान देवें, इस विषय को अगले मन्त्र में कहते हैं ॥
पदार्थ
हे (मघवन्) बहुधनयुक्त ! (हि) जिस से आप (महः) बहुत वा (अर्भस्य) थोड़े (वसुनः) धन के (विभागे) विभाग में (देष्णम्) देने योग्य को (उवोचिथ) कहो जिन (ते) आप के (उभा) दोनों (गभस्ती) हाथ (वसुना) धन से (पूर्णा) पूर्ण वर्त्तमान हैं उन आपकी (वसव्या) धनों में उत्तम (सूनृता) सत्य और प्रिय वाणी किसी से भी (न) नहीं (नि, यमते) नियम को प्राप्त होती अर्थात् रुकती है ॥३॥
भावार्थ
जो धनाढ्य जन बहुत वा थोड़े धन वा सुपात्र और कुपात्र वा धर्म और अधर्म के विभाग में सुपात्र और धर्म की वृद्धि के लिये धन दान करते हैं, उन की कीर्ति चिरकाल तक ठहरनेवाली होती है ॥३॥
विषय
विद्वान् न्यायकर्त्ता का कर्त्तव्य ।
भावार्थ
हे ( मघवन् ) ऐश्वर्यवन् ! ( महः ) बड़े, बहुत, और ( अर्भस्य ) थोड़े से भी ( वसुनः ) धन के ( विभागे ) विभाग करने में तू ( देष्णं ) देने योग्य वा उपदेश करने योग्य ज्ञान का ( उवोचिथ हि) अवश्य उपदेश कर ! ( वसुना पूर्णा ते गभस्ती ) धन से भरे पूरे तेरे बाहुओं को ( वसव्या ) धन को उचित विभाग करने का उपदेश करने वाली ( सूनृता ) उत्तम न्याययुक्त वाणी ( न नियमते ) दान करने से नहीं रोकती । वह वाणी तो स्वल्प और अधिक धन देने और विभक्त करने के लिये उत्तम पात्रापात्र के विवेक का उपदेश करती है ।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
वसिष्ठ ऋषिः॥ विश्वेदेवा देवताः ॥ छन्दः – १, ३ त्रिष्टुप् । २, ७ निचृत् त्रिष्टुप् । ५, ८ विराट् त्रिष्टुप् । ४ निचृत्पंक्तिः । ६ स्वराट् पंक्तिः॥ अष्टर्चं सूक्तम्॥
विषय
ज्ञान दान
पदार्थ
पदार्थ- हे (मघवन्) = ऐश्वर्यवन्! (महः) = बहुत और (अर्भस्य) = थोड़े से भी (वसुनः) = धन के (विभागे) = विभाग करने में, तू (देष्णं) = देने वा उपदेश करने योग्य ज्ञान का (उवोचिथ हि) = अवश्य उपदेश कर। (वसुना पूर्णा ते गभस्ती) = धन से भरे-पूरे तेरे बाहुओं को (असव्या) = धन के उचित विभाग का उपदेश करनेवाली (सूनृता) = उत्तम वाणी (न नियमते) = दान करने से नहीं रोकती।
भावार्थ
भावार्थ- विद्वान् जन उपदेश करें कि हे लोगो! तुम अपने ज्ञान को दूसरों तक अवश्य बाँटों। ज्ञान दान सर्वोत्तम दान है। पात्र की खोज करके ज्ञान दान अवश्य करो चाहे थोड़ा ही क्यों न हो । यही तुम्हारी विद्या एवं वाणी का सदुपयोग है।
मराठी (1)
भावार्थ
जे श्रीमंत लोक जास्त किंवा कमी धन सुपात्र व कुपात्र तसेच धर्म व अधर्म जाणून सुपात्रांना धर्माच्या वृद्धीसाठी धन देतात त्यांची कीर्ती चिरकालपर्यंत टिकते. ॥ ३ ॥
इंग्लिश (1)
Meaning
Lord and master of wealth, you take delight in charity and love to give and share, whether the giving and distribution involves a large or a small amount. Both your hands are full of plenty, your voice of truth from the heart overflows with generosity and nothing ever restrains your hands from giving.
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