ऋग्वेद - मण्डल 7/ सूक्त 90/ मन्त्र 6
ई॒शा॒नासो॒ ये दध॑ते॒ स्व॑र्णो॒ गोभि॒रश्वे॑भि॒र्वसु॑भि॒र्हिर॑ण्यैः । इन्द्र॑वायू सू॒रयो॒ विश्व॒मायु॒रर्व॑द्भिर्वी॒रैः पृत॑नासु सह्युः ॥
स्वर सहित पद पाठई॒शा॒नासः॑ । ये । दध॑ते । स्वः॑ । नः॒ । गोभिः॑ । अश्वे॑भिः । वसु॑ऽभिः । हिर॑ण्यैः । इन्द्र॑वायू॒ इति॑ । सू॒रयः॑ । विश्व॑म् । आयुः॑ । अर्व॑त्ऽभिः । वी॒रैः । पृत॑नासु । स॒ह्युः॒ ॥
स्वर रहित मन्त्र
ईशानासो ये दधते स्वर्णो गोभिरश्वेभिर्वसुभिर्हिरण्यैः । इन्द्रवायू सूरयो विश्वमायुरर्वद्भिर्वीरैः पृतनासु सह्युः ॥
स्वर रहित पद पाठईशानासः । ये । दधते । स्वः । नः । गोभिः । अश्वेभिः । वसुऽभिः । हिरण्यैः । इन्द्रवायू इति । सूरयः । विश्वम् । आयुः । अर्वत्ऽभिः । वीरैः । पृतनासु । सह्युः ॥ ७.९०.६
ऋग्वेद - मण्डल » 7; सूक्त » 90; मन्त्र » 6
अष्टक » 5; अध्याय » 6; वर्ग » 12; मन्त्र » 6
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अष्टक » 5; अध्याय » 6; वर्ग » 12; मन्त्र » 6
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
पदार्थः
(इन्द्रवायू) हे विद्युद्वाय्वादिविषयकसूक्ष्मविद्यावेत्तारः ! यूयम् (ईशानासः) ईश्वरतत्परान् ऐश्वर्यवतः कुरुत (ये) ये हि (गोभिः) गोभिः साधनैः तथा (अश्वेभिः) अश्वैः साधनैः (वसुभिः) धनैः साधनैः (हिरण्यैः) दीप्तिमद्भिः सुरत्नैश्च (स्वर्णम्, दधते) स्वर्णादिसाररत्नानि धारयन्ति (सूरयः) ते च विद्वांसः सन्तः (विश्वम्) पूर्णं (आयुः) वयः प्राप्नुवन्तु, तथा (अर्वद्भिः, वीरैः) गतिप्रवरैर्वीरैः (पृतनासु) युद्धेषु (सह्युः) पराभवेयुः ॥६॥
हिन्दी (3)
पदार्थ
(इन्द्रवायू) हे विद्युत् और वायु आदि तत्त्वों की सूक्ष्मविद्या जाननेवाले विद्वानों ! तुम (ईशानासः) ईश्वरपरायण लोगों को ऐश्वर्यसम्पन्न करो। (ये) जो लोग (गोभिः) गौओं द्वारा (अश्वेभिः) अश्वों द्वारा (वसुभिः) धनों द्वारा (हिरण्यैः) दीप्तिमात्र वस्तुओं द्वारा (स्वर्णं दधते) स्वर्णादि रत्नों को धारण करते हैं और (सूरयः) वे शूरवीर लोग (विश्वं) सम्पूर्ण (आयुः) आयु को प्राप्त हों और (अर्वद्भिः, वीरैः) वीर सन्तानों से (पृतनासु) युद्धों में शत्रुओं को (सह्युः) परास्त करें ॥६॥
भावार्थ
विद्युत् आदि विद्याओं की शक्तिओं को जाननेवाले विद्वान् ही प्रजाओं को ऐश्वर्यसम्पन्न बना सकते हैं। ऐश्वर्यसम्पन्न होकर ही प्रजा पूर्ण आयु को भोग सकती है। ऐश्वर्यसम्पन्न लोग ही युद्धों में पर पक्षों को परास्त करते हैं। परमात्मा उपदेश करते हैं कि हे विद्वानों ! तुम सबसे पहिले अपने देश को ऐश्वर्यसम्पन्न करो, ताकि तुम्हारी प्रजायें वीर सन्तान उत्पन्न करके शत्रुओं को परास्त करें ॥ जो लोग यह कहते हैं कि वैदिक समय में भारतवर्ष में ऐश्वर्य नहीं था, उनको उक्त मन्त्र की रचना पर अवश्य दृष्टि डालनी चाहिये। इस मन्त्र में केवल गौ, घोड़े और धनादि वस्तुओं के ऐश्वर्य का ही वर्णन नहीं किया, प्रत्युत (हिरण्य) बड़े-बड़े दिव्य रत्नों का वर्णन स्पष्टरीति से उक्त मन्त्र में किया गया है, इतना ही नहीं किन्तु स्वर्ण शब्द भी इसमें स्पष्ट रीति से आया है, जिसमें किसी को भी विवाद नहीं ॥ वेदों में एक प्रकार के ऐश्वर्य की तो कथा ही क्या, किन्तु नाना प्रकार के ऐश्वर्यों का वर्णन पाया जाता है, जैसा कि मं० २ सू० १५ मन्त्र ३ में रत्नों के धारण करने का उपदेश है। इसी प्रकार मं० १ सू० २० मन्त्र १ में रत्नों का वर्णन है। एक दो उदाहरणों से क्या, सहस्रों मन्त्र वेदों में ऐसे पाये जाते हैं, जिनमें रत्नादि निधियों का विस्तारपूर्वक वर्णन किया गया है। बहुत क्या, ऋग्वेद के पहिले मन्त्र में ही अग्नि को “रत्नधातमम्” का विशेषण दिया गया है, अर्थात् भौतिक अग्नि वा परमात्मा नाना प्रकार के रत्नों को धारण करनेवाले हैं। इसी भाव का उपदेश इस मन्त्र में है कि परमात्मा ईश्वरपरायण लोगों को नाना प्रकार की निधियों का स्वामी बनाता है, किन्तु केवल ईश्वर-अविश्वासी और उद्योगरहित लोगों को नहीं, किन्तु कर्मयोगी और ईश्वरविश्वासी लोगों को ईश्वर ऐश्वर्यसम्पन्न करता है। इसी अभिप्राय से परमात्मा ने इस मन्त्र में विद्युदादि विद्याओं के वेत्ता कर्मयोगी पुरुषों को वर्णन किया है ॥६॥
विषय
ब्रह्मचारियों के कर्त्तव्य ।
भावार्थ
( ये ) जो ( ईशानासः ) ऐश्वर्यवान् और शासन अधिकार से युक्त होकर ( नः ) हमारे सर्वस्व धन, राष्ट्र और सुखादि को ( गोभिः ) गौओं और भूमियों, ( अश्वेभिः ) घोड़ों ( वसुभिः ) राष्ट्रवासी विद्वानों और ( हिरण्यैः ) सुवर्णादि धातुओं, और हित रमणीय साधनों से ( विश्वम् आयु: ) पूर्ण जीवन ( दधते ) धारण करते हैं, या हमें प्रदान करते हैं हे ( इन्द्रवायू ) ऐश्वर्यवान् बलवान् प्रधान नायक पुरुषो ! वे ( सूरयः ) विद्वान् पुरुष ( अर्वद्भिः वीरैः ) शत्रुओं को नाश करने हारे वीर पुरुषों द्वारा ( पृतनासु ) संग्रामों में ( सह्युः ) विजय करें ।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
वसिष्ठ ऋषिः ॥ १—४ वायुः। ५—७ इन्द्रवायू देवते । छन्दः—१, २, ७ विराट् त्रिष्टुप् । ३ त्रिष्टुप् । ४, ५, ६ निचृत् त्रिष्टुप् ॥ सप्तर्चं सूक्तम् ॥
विषय
समृद्ध राष्ट्र
पदार्थ
पदार्थ - (ये) = जो (ईशानास:) = ऐश्वर्यवान् और शासन अधिकार से युक्त होकर (नः) = हमारे सर्वस्व राष्ट्र और सुखादि को (गोभिः) = गौओं और भूमियों (अश्वेभिः) = घोड़ों (वसुभिः) = विद्वानों, (हिरण्यैः) = सुवर्णादि धातुओं और रमणीय साधनों से (विश्वम् आयुः) = पूर्ण जीवन (दधते) = धारण करते हैं हे (इन्द्रवायू) = ऐश्वर्यवान् बलवान् प्रधान नायक पुरुषो! वे (सूरयः) = विद्वान् (अर्वद्भिः वीरैः) = शत्रुनाशक वीर पुरुषों द्वारा (पृतनासु) = संग्रामों में (सह्युः) = विजय करें।
भावार्थ
भावार्थ- राजा को योग्य है कि वह सम्प्रभुता पूर्ण शासन-अधिकार के साथ सम्पूर्ण राष्ट्र को गौ, भूमि, अश्व, विद्वान्, स्वर्ण आदि समस्त साधनों से सम्पन्न करे तथा शत्रुओं को विजय करने का सामर्थ्य प्राप्त करें।
इंग्लिश (1)
Meaning
Indra and Vayu, scholars and scientists of wind and electric energy, those leaders, pioneers and rulers, who bear and bring us peace, prosperity and joy with lands, cows and holy speech, horses and other means of transport, and golden wealths of the world, are brave heroes. They attain full health and longevity in the world for themselves and others, and win in the battles of life over enemies and negativities by virtue of warriors provided with fast and efficient means of transport and communication.
मराठी (1)
भावार्थ
विद्युत इत्यादी विद्येच्या शक्तींना जाणणारे विद्वानच प्रजेला ऐश्वर्यसंपन्न बनवू शकतात. ऐश्वर्यसंपन्न बनूनच प्रजा पूर्ण आयू भोगू शकते. ऐश्वर्यसंपन्न लोकच युद्धात शत्रूपक्षावर मात करू शकतात. परमात्मा उपदेश करतो, की हे विद्वानांनो! तुम्ही सर्वप्रथम आपल्या देशाला ऐश्वर्यसंपन्न करा. त्यामुळे तुमची प्रजा वीर संतान उत्पन्न करून शत्रूंना परास्त करील.
टिप्पणी
जे लोक हे म्हणतात, की वैदिक काळात भारतवर्षात ऐश्वर्य नव्हते. त्यांनी वरील मंत्रावर अवश्य दृष्टी टाकली पाहिजे. या मंत्रात केवळ गायी, घोडे व धन इत्यादी ऐश्वर्याचे वर्णनच नाही, तर हिरण्य मोठमोठ्या दिव्य रत्नांचे वर्णन स्पष्ट रीतीने केलेले आहे. इतकेच नव्हे तर सुवर्ण शब्दही यात स्पष्ट रीतीने आलेला आहे. ज्यात कोणताच विवाद नाही. $ वेदात एक प्रकारच्या ऐश्वर्याची कथाच नव्हे, तर नाना प्रकारच्या ऐश्वर्याचे वर्णन आढळते. जसे मं. २ सू. १५ मंत्र ३ मध्ये रत्ने धारण करण्याचा उपदेश आहे. याच प्रकारे मं. १ सू २० मंत्र १ मध्ये रत्नांचे वर्णन आहे. एक-दोनच नव्हे सहस्रो मंत्र वेदात असे आढळतात, की ज्यात रत्ने इत्यादी निधींचे विस्तारपूर्वक वर्णन केले गेलेले आहे. ऋग्वेदाच्या पहिल्या मंत्रातच अग्नीला ‘रत्नधातमम्’ विशेषण दिलेले आहे. अर्थात, भौतिक अग्नी किंवा परमात्मा नाना प्रकारची रत्ने धारण करणारा आहे. याच अर्थाने या मंत्रात उपदेश केलेला आहे, की परमात्मा ईश्वर परायण लोकांना विविध प्रकारच्या निधींचा स्वामी बनवितो; परंतु ईश्वर अविश्वासी व उद्योगरहित लोकांना नव्हे, तर कर्मयोगी व ईश्वरविश्वासी लोकांना तो ऐश्वर्यसंपन्न करतो. याच अभिप्रायाने परमात्म्याने या मंत्रात विद्युत इत्यादी विद्येचे वेत्ते कर्मयोगी पुरुषांचे वर्णन केलेले आहे. ॥६॥
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