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ऋग्वेद मण्डल - 8 के सूक्त 2 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 8/ सूक्त 2/ मन्त्र 22
    ऋषिः - मेधातिथिः काण्वः प्रियमेधश्चाङ्गिरसः देवता - इन्द्र: छन्दः - आर्षीगायत्री स्वरः - षड्जः

    आ तू षि॑ञ्च॒ कण्व॑मन्तं॒ न घा॑ विद्म शवसा॒नात् । य॒शस्त॑रं श॒तमू॑तेः ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    आ । तु । सि॒ञ्च॒ । कण्व॑ऽमन्तम् । न । घ॒ । वि॒द्म॒ । श॒व॒सा॒नात् । य॒शःऽत॑रम् । श॒तम्ऽऊ॑तेः ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    आ तू षिञ्च कण्वमन्तं न घा विद्म शवसानात् । यशस्तरं शतमूतेः ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    आ । तु । सिञ्च । कण्वऽमन्तम् । न । घ । विद्म । शवसानात् । यशःऽतरम् । शतम्ऽऊतेः ॥ ८.२.२२

    ऋग्वेद - मण्डल » 8; सूक्त » 2; मन्त्र » 22
    अष्टक » 5; अध्याय » 7; वर्ग » 21; मन्त्र » 2
    Acknowledgment

    संस्कृत (2)

    विषयः

    अथ यज्ञागतस्य कर्मयोगिनः सत्क्रिया कथ्यते।

    पदार्थः

    हे जिज्ञासो ! (कण्वमन्तं) विद्वद्भिर्युक्तं (तु) शीघ्रं (आ, सिञ्च) अभिषेकादिनाऽर्चय (शवसानात्) बलयुक्तात् (शतमूतेः) विविधां रक्षां कर्तुं समर्थात् (यशस्तरं) यशस्वितरमन्यं (न, घ, विद्म) नैव जानीमः ॥२२॥

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    विषयः

    सर्वः खलु यथाशक्ति दानं दद्यात् ।

    पदार्थः

    हे उपासक ! परमात्मा यथा तुभ्यं प्रतिक्षणं दानं ददाति, तथैव त्वमपि कार्य्याकार्य्यं विचार्य्य । तु=शीघ्रम् । आसिञ्च=पात्रेषु ज्ञानविज्ञानधनं वर्षय । कीदृशं धनम् । कण्वमन्तम्=विद्वद्भिः प्रदर्शितम् । यद्वा । कण्वमन्तमितीन्द्रस्य विशेषणम् । कण्वैर्मेधाविभिः प्रदर्शितमिन्द्रमुद्दिश्य पात्रेषु धनमासिञ्च । यतः । शवसानात्=ज्ञानविज्ञानमहाबलदायकात् । पुनः−शतमूतेः= शतमनन्ता ऊतयो रक्षाः सहायता यस्य स शतमूतिः । अनन्तसाहाय्यप्रदाता । “अत्र मागमो वैदिकः” तस्मादीश्वरात् । यशस्तरम्=अधिकं यशस्विनम् । नघ=नह्येव । विद्म=जानीमः । हे उपासक ! तदाश्रयेणैव ज्ञानवान् बलवान् यशस्वी च भविष्यसीत्यवधार्य्य तमेवोपधाव ॥२२ ॥

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    हिन्दी (4)

    विषय

    अब यज्ञ में आये हुए कर्मयोगी का सत्कार करना कथन करते हैं।

    पदार्थ

    हे जिज्ञासु जनो ! (कण्वमन्तं) विद्वानों से युक्त कर्मयोगी की (तु) शीघ्र (आ, सिञ्च) अभिषेकादि से अर्चना करो (शवसानात्) बल के आधार (शतमूतेः) अनेक प्रकार से रक्षा करने में समर्थ कर्मयोगी से (यशस्तरं) यशस्वितर अन्य को (न, घ, विद्म) हम नहीं जानते ॥२२॥

    भावार्थ

    याज्ञिक लोगों का कथन है कि हे जिज्ञासु जनसमुदाय ! तुम सब मिलकर विद्वानों सहित आये हुए कर्मयोगी का अर्चन तथा विविध प्रकार से सेवा सत्कार करो, जो विद्वान् महात्माओं के लिये अवश्यकर्तव्य है। ये बलवान्, यशस्वी तथा अनेक प्रकार से रक्षा करनेवाले योगीराज प्रसन्न होकर हमें विद्यादान द्वारा कृतार्थ करें, क्योंकि इनके समान यशस्वी, प्रतापी तथा वेदविद्या में निपुण अन्य कोई नहीं है ॥२२॥

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    विषय

    सब ही यथाशक्ति दान देवें ।

    पदार्थ

    हे उपासकगण ! जैसे परमात्मा तुमको प्रतिक्षण दान दे रहा है, वैसे ही तुम भी (तु) कार्य्याकार्य्य विचार कर शीघ्र (आसिञ्च) पात्रों में ज्ञान विज्ञान धन की वर्षा करो, जो धन (कण्वमन्तम्) विद्वानों से प्रदर्शित है । यद्वा (कण्वमन्तम्) जिस परमात्मा के मार्ग को विद्वद्गण ने दिखलाया है, उसके उद्देश से पात्रों में धन सींचो । जिस कारण (शवसानात्) वह ज्ञानविज्ञानरूप महाबल का दाता है और (शतमूतेः) प्रतिदिन अनन्त साहाय्य दे रहा है । हे मनुष्यो ! इससे बढ़कर (यशस्तरम्) यशस्वी कौन है (न+घ+विद्म) हम लोग नहीं जानते हैं । हे उपासकगण ! उसी के आश्रय से ज्ञानवान् बलवान् और यशस्वी होओगे, यह निश्चय कर उसकी उपासना करो ॥२२ ॥

    भावार्थ

    जैसे परमात्मा अनन्त साहाय्यप्रदाता है, वैसे तुम भी लोगों में साहाय्य करो । जैसे वह ज्ञानबल है, वैसे ही तुम ज्ञानी और बली होओ । जैसे वह महायशस्वी है, वैसे ही तुम भी यशों का उपार्जन करो और पात्रों में ज्ञानधन की वर्षा करो ॥२२ ॥

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    विषय

    प्रभु परमेश्वर से बल ऐश्वर्य की याचना

    भावार्थ

    हे विद्वन् ! हे ऐश्वर्यवन् ! तू ( कण्ववन्तं ) विद्वान् पुरुषों से युक्त जन को ( आ सिञ्च ) वृक्ष वनस्पतिवत् सींच, उसे बढ़ा । (शतम्ऊतेः ) सैकड़ों ज्ञानों और रक्षाओं से सम्पन्न ( शवसानात् ) बलवान् शक्तिशाली से अधिक ( यशस्तरं ) बलवान् और यशस्वी दूसरे को ( न घ विद्म ) नहीं जानते ।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    मेध्यातिथिः काण्वः प्रियमेधश्चांगिरसः । ४१, ४२ मेधातिथिर्ऋषिः ॥ देवता:—१—४० इन्द्रः। ४१, ४२ विभिन्दोर्दानस्तुतिः॥ छन्दः –१– ३, ५, ६, ९, ११, १२, १४, १६—१८, २२, २७, २९, ३१, ३३, ३५, ३७, ३८, ३९ आर्षीं गायत्री। ४, १३, १५, १९—२१, २३, २४, २५, २६, ३०, ३२, ३६, ४२ आर्षीं निचृद्गायत्री। ७, ८, १०, ३४, ४० आर्षीं विराड् गायत्री। ४१ पादनिचृद् गायत्री। २८ आर्ची स्वराडनुष्टुप्॥ चत्वारिंशदृचं सूक्तम्॥

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    विषय

    कण्वमन्तं यशस्तरं

    पदार्थ

    [१] हे प्रभो! आप (तु) = निश्चय से (आसिञ्च) = हमें शक्ति से सिक्त करिये। आप के अनुग्रह से सोम का [वीर्य का] हमारे अंग-प्रत्यंग में सेचन हो। [२] हम (शतं उते:) = सैंकड़ों रक्षणोंवाले (शवसानात्) = शक्तिशाली की तरह आचरण करते हुए आप से भिन्न किसी को भी (कण्ववन्तम्) = मेधाविता से युक्त व (यशस्तरम्) = अधिक यशस्वी (घा) = निश्चय से (न विद्म) = नहीं जानते।

    भावार्थ

    भावार्थ- प्रभु हमें शक्ति सम्पन्न करें। प्रभु ही सर्वोपरि मेधावी व शक्ति सम्पन्न हैं।

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    इंग्लिश (1)

    Meaning

    O man, with the nectar of soma, regale Indra, who commands wisdom and the wise and a hundred ways of defence, protection and progress. Indeed for reasons of his heroism and grandeur we know no one else more honourable and renowned than he.

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    याज्ञिक लोक म्हणतात, की हे जिज्ञासू जनसमुदायांनो! तुम्ही सर्वजण मिळून विद्वानासह आलेल्या कर्मयोग्याचे अर्चन व विविध प्रकारे सेवा सत्कार करा. जे विद्वान महात्म्यासाठी आवश्यक कर्तव्य आहे. बलवान, यशस्वी, रक्षक योगिराजांनी प्रसन्न होऊन आम्हाला विद्यादानाद्वारे कृतार्थ करावे. कारण त्यांच्या सारखा यशस्वी, पराक्रमी व वेदविद्येमध्ये निपुण कोणी नसतो. ॥२२॥

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