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ऋग्वेद मण्डल - 8 के सूक्त 2 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 8/ सूक्त 2/ मन्त्र 30
    ऋषिः - मेधातिथिः काण्वः प्रियमेधश्चाङ्गिरसः देवता - इन्द्र: छन्दः - निचृदार्षीगायत्री स्वरः - षड्जः

    गिर॑श्च॒ यास्ते॑ गिर्वाह उ॒क्था च॒ तुभ्यं॒ तानि॑ । स॒त्रा द॑धि॒रे शवां॑सि ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    गिरः॑ । च॒ । याः । ते॒ । गि॒र्वा॒हः॒ । उ॒क्था । च॒ । तुभ्य॑म् । तानि॑ । स॒त्रा । द॒धि॒रे । शवां॑सि ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    गिरश्च यास्ते गिर्वाह उक्था च तुभ्यं तानि । सत्रा दधिरे शवांसि ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    गिरः । च । याः । ते । गिर्वाहः । उक्था । च । तुभ्यम् । तानि । सत्रा । दधिरे । शवांसि ॥ ८.२.३०

    ऋग्वेद - मण्डल » 8; सूक्त » 2; मन्त्र » 30
    अष्टक » 5; अध्याय » 7; वर्ग » 22; मन्त्र » 5
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    संस्कृत (2)

    पदार्थः

    (गिर्वाहः) हे गीर्भिः सेवनीय ! (याः, ते, गिरः, च) याश्च त्वत्सम्बन्धिवाण्यः (तुभ्यं, उक्था, च) त्वदर्थं स्तोत्राणि च (तानि) तानि सर्वाणि (सत्रा) सहैव (शवांसि) बलानि (दधिरे) दधते ॥३०॥

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    विषयः

    ईश्वरस्तुत्या वाणी बलवती भवतीत्यर्थमनया दर्शयति ।

    पदार्थः

    हे गिर्वाहः=गिरां वाणीनां वाहः । वस्तुतः परमात्मैव सर्वेषां प्राणिनां वाणीप्रदाता । आद्यसृष्टौ च मनुष्यजातौ तेनैव वाणी विस्पष्टा प्रदत्ता अतोऽपि स गिर्वाहः । यद्वा । हे मनुष्यवाणीप्रद ईश्वर ! ते=त्वदर्थम् । याश्च । गिरः=प्रत्यहम् अस्माभिः प्रयुज्यमाना वाचः सन्ति ताः । च=पुनः । तुभ्यम्=त्वदर्थम् । यानि । उक्था=उक्थानि अस्माभिः प्रयुज्यमानानि पवित्राणि स्तुतिवचनानि सन्ति तानि च । सत्रा=सार्धमेव । शवांसि=बलानि । दधिरे=धारयन्ति । ईश्वरोद्देशेन प्रयुज्यमाना वाचः स्तुतयश्च बलवत्यो भवन्ति ॥३० ॥

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    हिन्दी (4)

    पदार्थ

    (गिर्वाहः) हे वाणियों द्वारा सेवनीय ! (या, ते, गिरः, च) जो आप सम्बन्धी वाणी हैं (च) तथा (तुभ्यं, उक्था) जो आपके लिये स्तोत्र हैं (तानि) वे सब (सत्रा) साथ ही (शवांसि) बलों को (दधिरे) उत्पन्न करते हैं ॥३०॥

    भावार्थ

    हे ज्ञानयोगी तथा कर्मयोगिन् ! आप सम्बन्धी स्तोत्रों तथा ऋचाओं द्वारा आपको उद्बोधन करते हुए आपकी प्रशंसा करते हैं कि कृपा करके आप हम लोगों को वेदविद्या का उपदेश करें, जिससे हम ऐश्वर्य्यशाली होकर संसार में यशस्वी हों ॥३०॥

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    विषय

    ईश्वर की स्तुति से वाणी बलवती होती है, इस अर्थ को इससे दिखलाते हैं ।

    पदार्थ

    हे (गिर्वाहः) वाणियों का वाहक यद्वा हे स्तुतिप्रिय ! वस्तुतः परमात्मा ही सकल प्राणियों की वाणियों का प्रदाता है । आदि सृष्टि में मनुष्यजाति को उसी ने वाणी दी, इससे भी वही वाणीवाहक है । जब वही वाणी दाता है, तब हम मनुष्य उसकी क्या स्तुति कर सकते हैं । हमारी स्तुति विडम्बनामात्र है, तथापि अपने सन्तोष के लिये हम उसके गुणों का गान करते हैं । यह इस शब्द से ध्वनि है । हे परमात्मन् ! (ते) तेरे लिये हम मनुष्यों से प्रयुज्यमान (याः+च+गिरः) जो ये वचन हैं (च) और (तुभ्यम्) तेरे लिये (उक्था) जो पवित्र स्तुतिवचन हैं (तानि) वे दोनों (सत्रा) साथ ही (शवांसि) बलों को (दधिरे) धारण करते हैं । ईश्वर के उद्देश से प्रयुक्त वचनों में अधिक बल होते हैं ॥३० ॥

    भावार्थ

    जब मनुष्य ईश्वरीय तत्त्व जानता और तदीय गुणों से अपनी वाणी को पवित्र करता, तब ही उसमें बल आता, उससे सुरक्षित उपासक सर्वत्र सुप्रतिष्ठित होता है ॥३० ॥

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    विषय

    प्रभु परमेश्वर से बल ऐश्वर्य की याचना

    भावार्थ

    हे ( गिर्वाहः ) वाणियों को मनुष्यों को देने वाले, और हे वाणियों द्वारा हृदय में धारण करने योग्य ! ( याः च गिरः ) जो वाणियां और ( यानि च उक्थानि ) जो उत्तम वेद-वचन ( ते ) तेरे लिये प्रयुक्त होते हैं पूर्वोक्त विद्वान् जन उन वाणियों और ( तानि ) उत्तम वचनों और ( शवांसि ) नाना बलों को भी ( तुभ्यं ) तेरी स्तुति के लिये ही ( सत्रा दधिरे ) सदा धारण करें। इति द्वाविंशो वर्गः॥

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    मेध्यातिथिः काण्वः प्रियमेधश्चांगिरसः । ४१, ४२ मेधातिथिर्ऋषिः ॥ देवता:—१—४० इन्द्रः। ४१, ४२ विभिन्दोर्दानस्तुतिः॥ छन्दः –१– ३, ५, ६, ९, ११, १२, १४, १६—१८, २२, २७, २९, ३१, ३३, ३५, ३७, ३८, ३९ आर्षीं गायत्री। ४, १३, १५, १९—२१, २३, २४, २५, २६, ३०, ३२, ३६, ४२ आर्षीं निचृद्गायत्री। ७, ८, १०, ३४, ४० आर्षीं विराड् गायत्री। ४१ पादनिचृद् गायत्री। २८ आर्ची स्वराडनुष्टुप्॥ चत्वारिंशदृचं सूक्तम्॥

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    विषय

    ज्ञान-सवन

    पदार्थ

    [१] हे (गिर्वाह:) = ज्ञान की वाणियों को प्राप्त करानेवाले प्रभो ! (गिरः च याः) = ये जो भी ज्ञान की वाणियाँ हैं, वे (ते) = आपकी ही हैं। आप ही सब ज्ञान की वाणियों को प्राप्त करानेवाले हैं । (उक्थ च) = और जो भी स्तुति-वचन हैं, वे सब भी (तुभ्यम्) = आप के लिये ही हैं। सब पूजा परम्परया आपकी ही पूजा होती है [२] (तानि) = वे स्तुति-वचन (सत्रा) = सदा इस स्तोता के जीवन में (शवांसि दधिरे) = बलों को धारण करते हैं। स्तोता प्रभु के बल से बल-सम्पन्न होकर सब आन्तर शत्रुओं को दूर भगानेवाला होता है और बाह्य कष्टों का सहन कर पाता है।

    भावार्थ

    भावार्थ- सब ज्ञान प्रभु से प्राप्त होता है। प्रभु का स्तवन स्तोता को बल सम्पन्न करता है।

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    इंग्लिश (1)

    Meaning

    O lord of voice divine and lover of holy song, your words of the holy Veda and the songs sung in your honour, all these together inspire and exalt the grandeur and glory of life divine.

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    हे ज्ञानयोगी व कर्मयोगी! तुमच्या स्तोत्राद्वारे व ऋचांद्वारे तुम्हाला उद्बोधन करत तुमची प्रशंसा करतो. कृपा करून तुम्ही आम्हाला वेदविद्येचा उपदेश करा, ज्यामुळे आम्ही ऐश्वर्यशाली बनून जगात यशस्वी व्हावे. ॥३०॥

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