ऋग्वेद - मण्डल 8/ सूक्त 6/ मन्त्र 36
आ नो॑ याहि परा॒वतो॒ हरि॑भ्यां हर्य॒ताभ्या॑म् । इ॒ममि॑न्द्र सु॒तं पि॑ब ॥
स्वर सहित पद पाठआ । नः॒ । या॒हि॒ । प॒रा॒ऽवतः॑ । हरि॑ऽभ्याम् । ह॒र्य॒ताभ्या॑म् । इ॒मम् । इ॒न्द्र॒ । सु॒तम् । पि॒ब॒ ॥
स्वर रहित मन्त्र
आ नो याहि परावतो हरिभ्यां हर्यताभ्याम् । इममिन्द्र सुतं पिब ॥
स्वर रहित पद पाठआ । नः । याहि । पराऽवतः । हरिऽभ्याम् । हर्यताभ्याम् । इमम् । इन्द्र । सुतम् । पिब ॥ ८.६.३६
ऋग्वेद - मण्डल » 8; सूक्त » 6; मन्त्र » 36
अष्टक » 5; अध्याय » 8; वर्ग » 16; मन्त्र » 1
Acknowledgment
अष्टक » 5; अध्याय » 8; वर्ग » 16; मन्त्र » 1
Acknowledgment
भाष्य भाग
संस्कृत (2)
पदार्थः
(इन्द्र) हे परमात्मन् ! (परावतः) दूरदेशात् (हर्यताभ्याम्) कमनीयाभ्याम् (हरिभ्याम्) हरणशीलाभ्यां ज्ञानविज्ञानाभ्याम् (नः) अस्मान् (आयाहि) आगच्छ (इमम्, सुतम्) इमं संस्कृतं (पिब) अन्तःकरणमनुभवतु ॥३६॥
विषयः
इन्द्रः स्तूयते ।
पदार्थः
बहुशः पूर्वमुक्तम् । यौ स्थावरजङ्गमात्मकौ द्वौ संसारौ स्तः । तावेव परमात्मनोऽश्वाविव वर्त्तेते । यथा कश्चिदश्वपृष्ठस्थो गच्छन् सर्वैर्दृश्यते । तथैव तद्विधसंसारव्यापी परमात्मा सर्वैर्लक्ष्यते । अथ मन्त्रार्थः−हे इन्द्र ! हर्य्यताभ्याम्=सर्वैः कमनीयाभ्याम् । हरिभ्याम्=परस्परहरणशीलाभ्याम्=स्थावरजङ्गमात्मकाभ्यां संसाराभ्याम् । परावतः=अदृश्यादपि अतिदूराद्देशात् । नोऽस्मान् । आयाहि=स्वात्मानं प्रकटय । तथा । आगत्य इमं सुतम्=अस्माकं यज्ञं सर्वं वस्तु वा । पिब=अनुगृहाण ॥३६ ॥
हिन्दी (4)
पदार्थ
(इन्द्र) हे परमात्मन् ! (परावतः) दूरदेश से (हर्यताभ्याम्) मनोहर (हरिभ्याम्) हरणशील ज्ञान और विज्ञानद्वारा (नः) हमारे समीप (आयाहि) आवें (इमम्, सुतम्) इस संस्कृत अन्तःकरण को (पिब) अनुभव करें ॥३६॥
भावार्थ
हे सर्वरक्षक प्रभो ! आप हमारे हृदय में विराजमान होकर हमारे संस्कृत हृदय को अनुभव करें अर्थात् हमारी न्यूनता को दूर करें, जिससे केवल एकमात्र आप ही का मान और ध्यान हमारे हृदय में हो ॥३६॥
विषय
इससे इन्द्र की स्तुति होती है ।
पदार्थ
मैं पूर्व में बहुधा कह चुका हूँ कि जो ये स्थावर और जङ्गमरूप दो प्रकार के संसार हैं, वे ही परमात्मा के मानो, अश्वसमान हैं । जैसे अश्वपृष्ठ के ऊपर बैठा पुरुष सबसे अच्छे प्रकार देखा जाता है, तद्वत् परमात्मा भी इन दोनों में ही देखा जाता है । साक्षात् उसका अवलोकन कोई नहीं कर सकता है । वे द्विविध संसार वैदिक भाषा में “हरि” कहलाते हैं, क्योंकि अपने-२ प्रभाव से एक दूसरे को हरण करते हैं, परमात्मा केवल इन दोनों में ही नहीं हैं, इनसे अतिरिक्त स्थानों में भी वह विद्यमान है, जिनके विषय में हम जीव कुछ नहीं कह सकते । उन स्थानों का नाम परावान है । अथ मन्त्रार्थ−(इन्द्र) हे इन्द्र ! (हर्यताभ्याम्) परमकमनीय=सबसे अभिवाञ्छित (हरिभ्याम्) परस्पर हरण करनेवाले स्थावर और जङ्गमरूप संसारों द्वारा तू (परावतः) अदृश्य=अति दूर देश से भी आकर (नः) हम भक्तजनों के निकट (आ+याहि) अपने को प्रकट कर, जिससे तेरा दर्शन पाकर हम तृप्त होवें । और हे इन्द्र ! (इमम्) इस (सुतम्) हमारे शुभ कर्मों को और सब पदार्थों को (पिब) कृपादृष्टि से देख, यह परम भक्तिसूचक स्तुति है ॥३६ ॥
भावार्थ
हे मनुष्यों ! सृष्टि के अध्ययन से ही ईश्वर का बोध होता है । जब मनुष्य उसकी विभूति को जानते हैं और उसकी आज्ञा में सदा रहते हैं, तब निश्चय उस पर वह प्रसन्न होता है ॥३६ ॥
विषय
पिता प्रभु । प्रभु और राजा से अनेक स्तुति-प्रार्थनाएं ।
भावार्थ
हे ( इन्द्र) ऐश्वर्यवन् ! प्रभो स्वामिन् ! ( हरिभ्यां परावतः ) दो अश्वों से जिस प्रकार कोई स्वामी अतिशीघ्र दूर देश से भी प्राप्त होता है उसी प्रकार तू ( हर्यताभ्याम् ) अत्यन्त कान्तियुक्त, मनोहर ( हरिभ्याम् ) सब दुःखों के हरने वाले चिन्मय और आनन्दमय रूपों से ज्ञानमय और क्रियामय रूपों से ( परावतः ) दृश्यमान जगत् की सीमा से कहीं अन्य अगम्य दशा से भी ( नः आयाहि ) हमें प्राप्त हो, हमें प्रकट हो । और हे प्रभो ! ( इमं सुतं पिब ) उत्पन्न हुए इस जीव संसार को पुत्रवत् पालन कर वा ओषिधि रसवत् पान कर, अपने में एकरस करले ।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
वत्सः काण्व ऋषिः ॥ १—४५ इन्द्रः। ४६—४८ तिरिन्दिरस्य पारशव्यस्य दानस्तुतिर्देवताः॥ छन्दः—१—१३, १५—१७, १९, २५—२७, २९, ३०, ३२, ३५, ३८, ४२ गायत्री। १४, १८, २३, ३३, ३४, ३६, ३७, ३९—४१, ४३, ४५, ४८ निचृद् गायत्री। २० आर्ची स्वराड् गायत्री। २४, ४७ पादनिचृद् गायत्री। २१, २२, २८, ३१, ४४, ४६ आर्षी विराड् गायत्री ॥
विषय
हर्यत हरि
पदार्थ
[१] हे प्रभो ! (परावतः) = सुदूर देश की यात्रा के उद्देश्य से (हर्यताभ्यां हरिभ्याम्) = गतिशील व तेजस्विता से कान्त [सुन्दर] इन्द्रियाश्वों से (नः) = हमें (आयाहि) = आप प्राप्त होइये। इन उत्तम ज्ञानेन्द्रिय व कर्मेन्द्रिय रूप अश्वों से हम सुदूरस्थ लक्ष्य पर पहुँचनेवाले बनें। [२] इन इन्द्रियाश्वों को 'हर्यत' बनाने के लिये हे (इन्द्र) = शत्रु विद्रावक प्रभो ! (इमम्) = इस (सुतम्) = उत्पन्न सोम को (पिब) = हमारे शरीर में ही पीनेवाले होइये यह सुरक्षित सोम ही इन्द्रियों को सशक्त बनता है।
भावार्थ
भावार्थ- सुदूर लक्ष्य पर पहुँचाने के लिये प्रभु हमें गतिशील कान्त इन्द्रियाश्वों को प्राप्त करायें। इन्हें गतिशील कान्त बनाने के लिये सोम को शरीर में ही सुरक्षित करें।
इंग्लिश (1)
Meaning
Indra, come hither to us to join our yajna even from the farthest borders of the universe by brilliant vibrations of natural presence and illuminating rays of light divine and accept this distilled soma of our prayer and adoration.
मराठी (1)
भावार्थ
हे सर्वरक्षक प्रभो, तू आमच्या हृदयात विराजमान होऊन आमच्या सुसंस्कृत हृदयाचा अनुभव घे. अर्थात् आमची न्यूनता कमी कर. ज्यामुळे एकमात्र तुझाच मान व ध्यान आमच्या हृदयात असावे. ॥३६॥
Acknowledgment
Book Scanning By:
Sri Durga Prasad Agarwal
Typing By:
N/A
Conversion to Unicode/OCR By:
Dr. Naresh Kumar Dhiman (Chair Professor, MDS University, Ajmer)
Donation for Typing/OCR By:
N/A
First Proofing By:
Acharya Chandra Dutta Sharma
Second Proofing By:
Pending
Third Proofing By:
Pending
Donation for Proofing By:
N/A
Databasing By:
Sri Jitendra Bansal
Websiting By:
Sri Raj Kumar Arya
Donation For Websiting By:
Shri Virendra Agarwal
Co-ordination By:
Sri Virendra Agarwal