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ऋग्वेद मण्डल - 8 के सूक्त 84 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 8/ सूक्त 84/ मन्त्र 3
    ऋषिः - उशना काव्यः देवता - अग्निः छन्दः - निचृद्गायत्री स्वरः - षड्जः

    त्वं य॑विष्ठ दा॒शुषो॒ नॄँ: पा॑हि शृणु॒धी गिर॑: । रक्षा॑ तो॒कमु॒त त्मना॑ ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    त्वम् । य॒वि॒ष्ठ॒ । दा॒शुषः॑ । नॄन् । पा॒हि॒ । शृ॒णु॒धि । गिरः॑ । रक्ष॑ । तो॒कम् । उ॒त । त्मना॑ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    त्वं यविष्ठ दाशुषो नॄँ: पाहि शृणुधी गिर: । रक्षा तोकमुत त्मना ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    त्वम् । यविष्ठ । दाशुषः । नॄन् । पाहि । शृणुधि । गिरः । रक्ष । तोकम् । उत । त्मना ॥ ८.८४.३

    ऋग्वेद - मण्डल » 8; सूक्त » 84; मन्त्र » 3
    अष्टक » 6; अध्याय » 6; वर्ग » 5; मन्त्र » 3
    Acknowledgment

    इंग्लिश (1)

    Meaning

    O lord eternal, ever youthful beyond age, pray protect and promote the families of the generous people, listen to their voices of prayer and, by all your will and power, protect and promote the children and grand children of humanity.

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    मानवात निहित ज्ञान व कर्तृत्वशक्तीचे प्रतीक ‘अग्नी’ ती शक्ती आहे जी आपल्या आपणच आमच्या ज्ञान व कर्मेन्द्रियाद्वारे आमच्या संततीचेही रक्षण करते. उपासकाने आपली ज्ञानेन्द्रिये व कर्मेन्द्रिये यांचे रक्षण असे केले पाहिजे, की त्यांची शक्ती सदैव प्रभावशाली असावी. ॥३॥

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    हिन्दी (3)

    पदार्थ

    हे (यविष्ठ) युवातम, ज्ञान व नेतृत्व शक्ति की अधिकता से सम्पन्न प्रभु! आप (दाशुषः) दानशील, आत्म समर्पक (नृन्) जनों की (पाहि) रक्षा करते हैं और (गिरः) स्तुति वचन (शृणुधि) सुनते हैं; (तोकम् उत) हमारी सन्तति की भी (त्मना) स्वयं अपने आप (रक्षा) रक्षा करें॥३॥

    भावार्थ

    व्यक्ति में निहित ज्ञान व कर्तृत्वशक्ति का प्रतीक ‘अग्नि' वह शक्ति है, जो स्वतः हमारी ज्ञान व कर्मेन्द्रियों से हमारी सन्तति तक की रक्षा करती है। उपासक को अपनी ज्ञानेन्द्रियों तथा कर्मेन्द्रियों को [की] इस प्रकार देखरेख करनी चाहिये कि इनकी शक्ति सदैव प्रभावशाली रहे॥३॥

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    विषय

    नायक की दीपक वा अग्निवत् दो प्रकार की स्थिति।

    भावार्थ

    हे ( यविष्ठ ) युवतम, उत्तम युवा पुरुष ! बलवन् ! ( त्वं ) तू ( दाशुषः ) जीवन, धन, ज्ञानादि देने वाले ( नॄन् ) मनुष्यों को ( पाहि ) पालन कर और उन की ( गिरः ) वाणियों को ( शृणुधि ) आदर से श्रवण कर ( तोकम् ) पुत्र आदि सन्तति की ( त्मना ) अपने आत्म सामर्थ्य से ( रक्ष ) रक्षा कर।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    उशना काव्य ऋषिः॥ अग्निर्देवता॥ छन्दः—१ पादनिचृद् गायत्री। २ विराड् गायत्री। ३,६ निचृद् गायत्री। ४, ५, ७—९ गायत्री॥ नवर्चं सूक्तम्॥

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    विषय

    दाश्वान् के रक्षक प्रभु

    पदार्थ

    [१] हे (यविष्ठ) = बुराइयों को हमारे से अधिक से अधिक पृथक् करनेवाले व अच्छाइयों को हमारे से मिलानेवाले प्रभो ! (त्वम्) = आप (दाशुषः नॄन्) = आपके प्रति अपना अर्पण करनेवाले मनुष्यों को (पाहि) = रक्षित करिये। आप (गिरः) = हमारी इन प्रार्थना वाणियों को (शृयुधि) = अवश्य सुनिये। आपने ही तो हमारा रक्षण करना है हम आपके ही शरणागत हैं। [२] (उत) = और आप (त्मना तोकं) = रक्षा-स्वयं ही हम सन्तानों का रक्षण कीजिये। हमारा व हमारे सन्तानों का आपने ही रक्षण करना है । पुत्र कभी पिता से रक्षण की प्रार्थना थोड़े ही किया करता है? पिता स्वयं ही पुत्र का रक्षण करते हैं।

    भावार्थ

    भावार्थ- हम प्रभु के प्रति अपना अर्पण करें। प्रभु ही हमारा व हमारे सन्तानों करेंगे।

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