ऋग्वेद - मण्डल 8/ सूक्त 97/ मन्त्र 9
न त्वा॑ दे॒वास॑ आशत॒ न मर्त्या॑सो अद्रिवः । विश्वा॑ जा॒तानि॒ शव॑साभि॒भूर॑सि॒ न त्वा॑ दे॒वास॑ आशत ॥
स्वर सहित पद पाठन । त्वा॒ । दे॒वासः॑ । आ॒श॒त॒ । न । मर्त्या॑सः । अ॒द्रि॒ऽवः॒ । विश्वा॑ । जा॒तानि॑ । शव॑सा । अ॒भि॒ऽभूः । अ॒सि॒ । न । त्वा॒ । दे॒वासः॑ । आ॒श॒त॒ ॥
स्वर रहित मन्त्र
न त्वा देवास आशत न मर्त्यासो अद्रिवः । विश्वा जातानि शवसाभिभूरसि न त्वा देवास आशत ॥
स्वर रहित पद पाठन । त्वा । देवासः । आशत । न । मर्त्यासः । अद्रिऽवः । विश्वा । जातानि । शवसा । अभिऽभूः । असि । न । त्वा । देवासः । आशत ॥ ८.९७.९
ऋग्वेद - मण्डल » 8; सूक्त » 97; मन्त्र » 9
अष्टक » 6; अध्याय » 6; वर्ग » 37; मन्त्र » 4
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अष्टक » 6; अध्याय » 6; वर्ग » 37; मन्त्र » 4
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भाष्य भाग
इंग्लिश (1)
Meaning
O lord of clouds and thunder, the divines comprehend you not, the mortals comprehend you not. By virtue of your supreme power and glory you are above all things born in the world of existence. O lord supreme, the immortal divines comprehend you not.
मराठी (1)
भावार्थ
परमेश्वराशी सायुज्यता तेच साधक प्राप्त करू शकतात ज्यांना शक्तीचा गर्व नसतो व ज्यांच्यात हीन भावना नसते. ॥९॥
हिन्दी (3)
पदार्थ
हे (अद्रिवः) आदरणीय अखण्ड ऐश्वर्ययुक्त विघ्नहर्ता प्रभु! (त्वा) आपको (न) न तो (देवासः) स्वयं को दिव्य अथवा अमर हुआ समझने वाले ही (आशत) पा सकते हैं और (न) न ही (मर्त्यासः) स्वयं को मरणशील मानने वाले आपको पाते हैं। आप अपने (शवसा) बल से विश्वा (जातानि) उत्पन्न सभी पदार्थों व प्राणियों से (अभि भूः असि) बढ़े-चढ़े हैं। ९॥
भावार्थ
प्रभु के साथ सामीप्य वे ही साधक पा सकते हैं, जिन्हें न तो अपनी शक्तियों का गर्व हो और न जिनमें हीनता के भाव हों॥९॥
विषय
राजा के कर्त्तव्य के साथ साथ परमेश्वर के गुणों का वर्णन।
भावार्थ
हे (अद्रिवः ) शक्तिशालिन् ! ( त्वा देवासः न आशत ) तुझे विद्वान् गण वा इन्द्रिय गण भी नहीं पा सकते। और( न मर्त्यासः ) न साधारण मनुष्य, मरणशील प्राणी ही तुझे पा सकते हैं। तू ( शवसा ) बल से (विश्वा जातानि) समस्त उत्पन्न पदार्थों को भी (अभिभूः असि) वश किये हैं। इसलिये भी ( त्वा देवासः न आशत ) तुझे दिव्य पदार्थ सूर्यादि, एवं विद्वान और नाना कामना करने हारे जन भी नहीं पा सकते।
टिप्पणी
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ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
रेभः काश्यप ऋषिः॥ इन्द्रो देवता॥ छन्दः—१, ११ विराड् बृहती। २, ६, ९, १२ निचृद् बृहती। ४, ५, बृहती। ३ भुरिगनुष्टुप्। ७ अनुष्टुप्। १० भुरिग्जगती। १३ अतिजगती। १५ ककुम्मती जगती। १४ विराट् त्रिष्टुप्॥ पञ्चदशर्चं सूक्तम्॥
विषय
'असीम, अचिन्त्य [अगम्य]' प्रभु
पदार्थ
[१] हे (अद्रिवः) = आदरणीय प्रभो ! (त्वा) = आपको (देवास:) = सूर्य, चन्द्र, नक्षत्र आदि सब प्राकृतिक देव (न आशत) = नहीं व्याप सकते। आपकी महिमा इन्हीं में ही समाप्त नहीं हो जाती । (न मर्त्यासः) = न ही मनुष्य आपकी महिमा का व्यापन कर पाते हैं। मनुष्यों से भी आप अचिन्त्य व अगम्य होते हो। [२] हे प्रभो ! (विश्वा) = सब जातानि उत्पन्न पदार्थों व व्यक्तियों को आप (शवसा) = अपने बल से (अभिभूः असि) = अभिभूत करनेवाले हैं। ये सब (देवासः) = देव (त्वा) = आपको (न आशत) व्याप्त नहीं कर पाते।
भावार्थ
भावार्थ- प्रभु की महिमा न सूर्य-चन्द्र आदि से सीमित की जाती है, न मनुष्य उसका पूर्णतया चिन्तन कर पाते हैं।
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