ऋग्वेद - मण्डल 9/ सूक्त 10/ मन्त्र 5
ऋषिः - असितः काश्यपो देवलो वा
देवता - पवमानः सोमः
छन्दः - गायत्री
स्वरः - षड्जः
आ॒पा॒नासो॑ वि॒वस्व॑तो॒ जन॑न्त उ॒षसो॒ भग॑म् । सूरा॒ अण्वं॒ वि त॑न्वते ॥
स्वर सहित पद पाठआ॒पा॒नासः॑ । वि॒वस्व॑तः । जन॑न्तः । उ॒षसः॑ । भग॑म् । सूराः॑ । आ । अण्व॑म् । वि । त॒न्व॒ते॒ ॥
स्वर रहित मन्त्र
आपानासो विवस्वतो जनन्त उषसो भगम् । सूरा अण्वं वि तन्वते ॥
स्वर रहित पद पाठआपानासः । विवस्वतः । जनन्तः । उषसः । भगम् । सूराः । आ । अण्वम् । वि । तन्वते ॥ ९.१०.५
ऋग्वेद - मण्डल » 9; सूक्त » 10; मन्त्र » 5
अष्टक » 6; अध्याय » 7; वर्ग » 34; मन्त्र » 5
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अष्टक » 6; अध्याय » 7; वर्ग » 34; मन्त्र » 5
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
पदार्थः
(आपानासः) सर्वथा क्लेशानामपहर्ता (विवस्वतः) सूर्यात् (उषसः, भगम्) उषोरूपं स्वैश्वर्यम् (जनन्तः) जनयन् (सूराः) गन्त्रीम् (अण्वम्) सूक्ष्मप्रकृतिम् (वितन्वते) वितनोति ॥५॥
हिन्दी (3)
पदार्थ
(आपानासः) सब दुःखों का नाश करनेवाला (विवस्वतः) सूर्य से (उषसः, भगम्) उषारूप ऐश्वर्य को (जनन्तः) उत्पन्न करता हुआ (सूराः) गतिशील (अण्वम्) सूक्ष्मप्रकृति का (वितन्वते) विस्तार करता है ॥५॥
भावार्थ
परमात्मा प्रकृति की सूक्ष्मावस्था से अथवा यों कहो कि परमाणुओं से सृष्टि को उत्पन्न करता है और सूर्यादि प्रकाशमय ज्योतियों से उषारूप ऐश्वर्यों को उत्पन्न करता हुआ संसार के दुःखों का नाश करता है। तात्पर्य यह है कि उषःकाल होते ही जिस प्रकार सब ओर से आह्लाद उत्पन्न होता है, इस प्रकार का आह्लाद और समय में नहीं होता, इसलिये उषःकाल को यहाँ ऐश्वर्यरूप से कथन किया है। यद्यपि प्रातः, सन्ध्या, मध्याह्न इत्यादि सब काल परमात्मा की विभूति हैं, तथापि जिस प्रकार की उत्तम विभूति उषःकाल है, वैसी विभूति अन्यकाल नहीं, तात्पर्य यह है कि उषःकाल को उत्पन्न करके परमात्मा ने सब दुःखों को दूर किया है अर्थात् उक्त काल में योगी तथा रोगी सब प्रकार के लोग उस परमात्मा के आनन्द में उषःकाल में निमग्न हो जाते हैं। एक प्रकार से उषःकाल अपनी लालिमा के समान ब्रह्मोपासनारूपी रंग से सम्पूर्ण संसार को रञ्जित कर देता है ॥५॥३४॥
विषय
उषा का ऐश्वर्य व सूक्ष्म बुद्धि
पदार्थ
[१] (विवस्वतः) = ज्ञान की किरणोंवाले ज्ञानी पुरुष के ये सोमकण (आपानासः) = पान [पेय पदार्थ] बनते हैं। ज्ञान प्राप्ति में लगा हुआ वह इन्हें शरीर में ही चारों ओर व्याप्त करता है। शरीर में व्याप्त किये हुए ये सोमकण (उषसः भगम्) = उषा के ऐश्वर्य को जनन्त हमारे जीवन में उत्पन्न करते हैं। उषा का ऐश्वर्य यही है कि वह अपने प्रकाश से अन्धकार को तो दूर करती है, कभी सन्ताप का कारण नहीं बनती। इसी प्रकार सुरक्षित सोम हमारे अज्ञानान्धकार को दूर करते हैं और शरीर के तापों का हरण करनेवाले होते हैं। [२] (सूरा:) = ज्ञानी पुरुष, इस प्रकार इन सोमकणों के रक्षण के द्वारा (अण्वम्) = [subtle] सूक्ष्म बुद्धि को (वितन्वते) = विस्तृत करते हैं । इनके रक्षण से बुद्धि बड़ी तीव्र बनती है। उस तीव्र बुद्धि से अन्ततः हम प्रभु दर्शन कर पाते हैं ।
भावार्थ
भावार्थ-ज्ञान प्राप्ति में लगे रहकर हम सोम को शरीर में ही व्याप्त करें। यह हमें उस ज्ञान के प्रकाश को प्राप्त करायेगा जो कि कभी संताप का कारण नहीं होता ।
विषय
सूर्यवत् राजा की स्थिति, किरणों के तुल्य उसके अधीन शासक प्रजा रक्षक आदि। राजा की विभूति।
भावार्थ
(विवस्वतः) विविध ऐश्वर्यों और प्रजाओं के स्वामी के (आ-पानासः) चारों ओर के रक्षक (उषसः) प्रतापी, कान्तिमान्, तेजस्वी,जन (उषसः भगम्) सेव्य सूर्य को उषाकालों के समान (भगम्) सेवनीय, ऐश्वर्ययुक्त राजा को (जनन्त) प्रकट करते हैं और (सूराः) विद्वान् लोग ही उस (विवस्वतः) विविध प्रजाओं के स्वामी राजा के (अण्वं) गान योग्य यश को (वि तन्वते) विविध प्रकार से फैलाते हैं। इति चतुस्त्रिंशो वर्गः॥
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
असितः काश्यपो देवलो वा ऋषिः॥ पवमानः सोमो देवता॥ छन्दः- १, २, ६, ८ निचृद् गायत्री। ३, ५, ७, ९ गायत्री। ४ भुरिग्गायत्री॥ नवर्चं सूक्तम्॥
इंग्लिश (1)
Meaning
The brave and brilliant seekers of soma, light of divinity, having drunk the glory of the rising sun at dawn and themselves rising in glory, extend and spread the light of subtle knowledge around like light of the sun.
मराठी (1)
भावार्थ
परमेश्वर प्रकृतीच्या सूक्ष्मावस्थेने किंवा परमाणूपासून सृष्टीला उत्पन्न करतो व सूर्य इत्यादी प्रकाशमय ज्योतीनी उषारूप ऐश्वर्य उत्पन्न करून जगाच्या दु:खाचा नाश करतो.
टिप्पणी
तात्पर्य हे की उष:काल होताच ज्या प्रकारे सर्वत्र आल्हाद उत्पन्न होतो. या प्रकारचा आल्हाद इतर वेळी होत नाही. त्यासाठी उष:कालाला येथे ऐश्वर्यरूप म्हटले आहे. जरी प्रात:काळी संध्या व मध्याह्न इत्यादी सर्वकाळी परमेश्वराच्या विभूती आहेत तरीही ज्या प्रकारची उत्तम विभूती उष:काल आहे तशी विभूती इतर काळी नाही. तात्पर्य हे की उष:काल उत्पन्न करून परमेश्वराने सर्व दु:ख दूर केले आहे. अर्थात उक्तकाळी योगी-भोगी व रोगी सर्व प्रकारचे लोक उष:काली त्या परमात्म्याच्या आनंदात निमग्न होतात. एक प्रकारे उष:काल आपल्या लालिमेप्रमाणे ब्रह्मोपासनारूपी रंगाने संपूर्ण जगाला रंजित करतो. ॥५॥
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