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ऋग्वेद मण्डल - 9 के सूक्त 10 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 9/ सूक्त 10/ मन्त्र 6
    ऋषिः - असितः काश्यपो देवलो वा देवता - पवमानः सोमः छन्दः - निचृद्गायत्री स्वरः - षड्जः

    अप॒ द्वारा॑ मती॒नां प्र॒त्ना ऋ॑ण्वन्ति का॒रव॑: । वृष्णो॒ हर॑स आ॒यव॑: ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    अप॑ । द्वारा॑ । म॒ती॒नाम् । प्र॒त्नाः । ऋ॒ण्व॒न्ति॒ । का॒रवः॑ । वृष्णः॑ । हर॑से । आ॒यवः॑ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    अप द्वारा मतीनां प्रत्ना ऋण्वन्ति कारव: । वृष्णो हरस आयव: ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    अप । द्वारा । मतीनाम् । प्रत्नाः । ऋण्वन्ति । कारवः । वृष्णः । हरसे । आयवः ॥ ९.१०.६

    ऋग्वेद - मण्डल » 9; सूक्त » 10; मन्त्र » 6
    अष्टक » 6; अध्याय » 7; वर्ग » 35; मन्त्र » 1
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    पदार्थः

    (वृष्णः) सर्वकामप्रदातुः परमात्मनः (हरसे) पापनाशाय (आयवः) उपासका मनुष्याः (कारवः) कर्मयोगिनः (प्रत्नाः) दृढाभ्यासाः सन्तः (मतीनाम्) बुद्धीनां (अप, द्वारा) कुत्सितमार्गान् (ऋण्वन्ति) शोधयन्ति ॥६॥

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    हिन्दी (3)

    पदार्थ

    (वृष्णः) सब कामनाओं के दाता परमात्मा की (हरसे) पाप की निवृत्ति के लिये उपासना करनेवाले (आयवः) मनुष्य (कारवः) जो कर्मयोगी हैं (प्रत्नाः) जो अभ्यास में परिपक्व हैं, वे (मतीनाम्) बुद्धि के (अप, द्वारा) जो कुत्सित मार्ग हैं, उनको (ऋण्वन्ति) मार्जन कर देते हैं ॥६॥

    भावार्थ

    जो कर्मयोगी लोग कर्मयोग में तत्पर हैं और ईश्वर की उपासना में प्रतिदिन रत रहते हैं, वे अपनी बुद्धि को कुमार्ग की ओर कदापि नहीं जाने देते, तात्पर्य यह है कि कर्मयोगियों में अभ्यास की दृढ़ता के प्रभाव से ऐसा सामर्थ्य उत्पन्न हो जाता है कि उनकी बुद्धि सदैव सन्मार्ग की ओर ही जाती है, अन्यत्र नहीं ॥६॥

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    विषय

    अप ऋण्वन्ति

    पदार्थ

    [१] (मतीनां कारवः) = मननपूर्वक की गई स्तुतियों के करनेवाले, (प्रत्नाः) = पुरातन सभ्यता का अंगीकार करनेवाले, जिन पर नयी दुनियाँ का रंग नहीं चढ़ गया, ऐसे लोग (द्वारा) = इन्द्रिय द्वारों को (अपऋण्वन्ति) = विषय-वासनाओं से पृथक् करते हैं। [२] ये इन्द्रिय द्वारों के विषयों से अलग करनेवाले लोग ही (वृष्णः) = इस शक्ति का सेचन करनेवाले सोम के (हरस:) = आहर्ता होते हैं और (आयवः) = [एति इति] गतिशील होते हैं।

    भावार्थ

    भावार्थ- सोमरक्षण ही हमें सदा गतिशील बनाता है।

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    विषय

    विद्वानों का कर्त्तव्य। प्रभु वाणी के ज्ञान का प्रसार। (

    भावार्थ

    (प्रत्नाः) पुराने (कारवः) स्तुतिकर्त्ता, विद्वान्, कर्मकुशल (आयवः) ज्ञानी मनुष्य, (वृष्णः) सब सुखों के वर्षक (हरसः) सकल दुःखहारी प्रभु की (मतीनां) मननीय वेद-वाणियों के (द्वारा अप ऋण्वन्ति) द्वारों को विवृत करें, उनके गूढ़ मर्मों की व्याख्या करें। अथवा (मतीनां कारवः) उत्तम वाणियों के उपदेष्टा ज्ञानी लोग, बलवान् दुःखहारी प्रभु की प्राप्ति के (प्रत्ना द्वारा) सनातन प्राप्ति के मार्गों को (अप ऋण्वन्ति) बराबर खोलते रहा करें। सदा अन्यों को ईश्वर-प्राप्ति के उपाय खोल २ कर बतलाया करें।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    असितः काश्यपो देवलो वा ऋषिः॥ पवमानः सोमो देवता॥ छन्दः- १, २, ६, ८ निचृद् गायत्री। ३, ५, ७, ९ गायत्री। ४ भुरिग्गायत्री॥ नवर्चं सूक्तम्॥

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    इंग्लिश (1)

    Meaning

    Veteran scholars and artists, blest with the flames and showers of the light and generosity of the omnificent lord of soma, open wide the doors of divine knowledge and will for all humanity over the world.

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    जे कर्मयोगी लोक कर्मयोगात तत्पर असतात व ईश्वराच्या उपासनेत प्रत्येक दिवशी रत असतात. ते आपल्या बुद्धीला कुमार्गाकडे कधीच नेत नाहीत. कर्मयोग्यात अभ्यासाच्या दृढतेमुळे असे सामर्थ्य उत्पन्न होते की त्यांची बुद्धी सदैव सन्मार्गाकडेच जाते इतरत्र नाही. ॥६॥

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