ऋग्वेद - मण्डल 9/ सूक्त 52/ मन्त्र 3
च॒रुर्न यस्तमी॑ङ्ख॒येन्दो॒ न दान॑मीङ्खय । व॒धैर्व॑धस्नवीङ्खय ॥
स्वर सहित पद पाठच॒रुः । न । यः । तम् । ई॒ङ्ख॒य॒ । इ॒न्दो॒ इति॑ । न । दान॑म् । ई॒ङ्ख॒य॒ । व॒धैः । व॒ध॒स्नो॒ इति॑ वधऽस्नो । ई॒ङ्ख॒य॒ ॥
स्वर रहित मन्त्र
चरुर्न यस्तमीङ्खयेन्दो न दानमीङ्खय । वधैर्वधस्नवीङ्खय ॥
स्वर रहित पद पाठचरुः । न । यः । तम् । ईङ्खय । इन्दो इति । न । दानम् । ईङ्खय । वधैः । वधस्नो इति वधऽस्नो । ईङ्खय ॥ ९.५२.३
ऋग्वेद - मण्डल » 9; सूक्त » 52; मन्त्र » 3
अष्टक » 7; अध्याय » 1; वर्ग » 9; मन्त्र » 3
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अष्टक » 7; अध्याय » 1; वर्ग » 9; मन्त्र » 3
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
पदार्थः
(इन्दो) हे परमेश्वर ! (यः चरुः) यस्त्वं चराचरग्रहणकर्तासि (तम् न ईङ्खय) स त्वमाशु स्वरूपतां नय। अथ च (दानम् न ईङ्खय) मह्यं दातव्यमपि वस्तु झटिति प्रापय। (वधैः वधस्नो ईङ्खय) हे प्रबलशक्त्या रातिनाशकर्त्तः परमात्मन् ! मां शुभकर्मणि नियोजय ॥३॥
हिन्दी (3)
पदार्थ
(इन्दो) हे परमात्मन् ! (यः चरुः) जो आप चराचर को ग्रहण करनेवाले हैं, (तम् न ईङ्खय) वह आप अपने रूप को शीघ्र प्राप्त कराइये और (दानम् न ईङ्खय) मुझको दातव्य वस्तु को शीघ्र प्राप्त कराइये। (वधैः वधस्नो ईङ्खय) हे अपनी प्रबल शक्तियों से शत्रुओं के नाश करनेवाले आप मुझ को सत्कर्म की ओर प्रेरित कीजिये ॥३॥
भावार्थ
इस मन्त्र में परमात्मा ने सत्कर्म्मी बनाने का उपदेश दिया है ॥३॥
विषय
चरु तथा दान
पदार्थ
[१] हे सोम ! (यः चरु: न) = जो चरु [An oblation of rice and barley] के समान उत्कृष्ट भोजन है (तं ईंखय) = उसे हमारे लिये प्राप्त करा । अर्थात् हम यज्ञ करके सदा यज्ञशेष रूप अमृत का ही सेवन करनेवाले बनें । यह चरु के रूप में किया गया भोजन सोमरक्षण की अनुकूलता को पैदा करता है। [२] (इन्दो) = हे हमें शक्तिशाली बनानेवाले सोम (न) = [ इदानीं सा] अब (दानम्) = दान की वृत्ति को (ईंखय) = हमें प्राप्त करा । सोमरक्षक पुरुष दान की वृत्तिवाला होता है । भोगवृत्ति सोमरक्षण के प्रतिकूल है। [३] (वधस्त्रो) = रोगकृमियों के वध के लिये शरीर में स्तुति होनेवाले सोम (वधैः) = सब अवाञ्छनीय तत्त्वों के विनाश के हेतु से (ईंखय) = तू हमारे अंग-प्रत्यंग में गतिवाला हो। तेरे द्वारा हमारा सारा शरीर निर्मल हो उठे ।
भावार्थ
भावार्थ- सोमरक्षण के लिये आवश्यक है कि हम यज्ञशेष का सेवन करें। दान की वृत्तिवाले हों न कि भोगवृत्तिवाले तथा अंग-प्रत्यंग में सोम को प्राप्त कराके हम सब आधिव्याधियों को विनष्ट करनेवाले हों ।
विषय
विजेता का राज्याभिषेक।
भावार्थ
हे (इन्दो) ऐश्वर्यवन् ! हे जलों से आर्द्र, अभेषेचनीय, जन ! (यः चरुः न) जो उपभोग्य अन्न के समान सुखदायक है तू (तम् ईङ्खय) उसे हमें दे और तू (दानं न) दानशील को भी (ई) प्रेरित कर और हे (वधस्नो) शत्रुवध के अनन्तर स्नान करने वाले ! तू (वधैः) नाना शस्त्रों वा दण्डों के बल पर (ईखय) राष्ट्र को सञ्चालित कर।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
उचथ्य ऋषिः॥ पवमानः सोमो देवता॥ छन्दः– १ भुरिग्गायत्री। २ गायत्री। ३, ५ निचृद गायत्री। ४ विराड् गायत्री॥
इंग्लिश (1)
Meaning
Indu, spirit of peace, plenty and generosity, inspire him who is receptive and generous as a cloud, move him like charity in flow. O shaping power of hard discipline, shape him through hardness and inspire him to the good life of generosity and joy.
मराठी (1)
भावार्थ
या मंत्रात परमात्म्याने सत्कर्मी बनविण्याचा उपदेश केलेला आहे. ।।३।।
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