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ऋग्वेद मण्डल - 9 के सूक्त 86 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 9/ सूक्त 86/ मन्त्र 10
    ऋषिः - अकृष्टा माषाः देवता - पवमानः सोमः छन्दः - निचृज्जगती स्वरः - निषादः

    ज्योति॑र्य॒ज्ञस्य॑ पवते॒ मधु॑ प्रि॒यं पि॒ता दे॒वानां॑ जनि॒ता वि॒भूव॑सुः । दधा॑ति॒ रत्नं॑ स्व॒धयो॑रपी॒च्यं॑ म॒दिन्त॑मो मत्स॒र इ॑न्द्रि॒यो रस॑: ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    ज्योतिः॑ । य॒ज्ञस्य॑ । प॒व॒ते॒ । मधु॑ । प्रि॒यम् । पि॒ता । दे॒वाना॑म् । ज॒नि॒ता । वि॒भुऽव॑सुः । दधा॑ति । रत्न॑म् । स्व॒धयोः॑ । अ॒पी॒च्य॑म् । म॒दिन्ऽत॑मः । म॒त्स॒रः । इ॒न्द्रि॒यः । रसः॑ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    ज्योतिर्यज्ञस्य पवते मधु प्रियं पिता देवानां जनिता विभूवसुः । दधाति रत्नं स्वधयोरपीच्यं मदिन्तमो मत्सर इन्द्रियो रस: ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    ज्योतिः । यज्ञस्य । पवते । मधु । प्रियम् । पिता । देवानाम् । जनिता । विभुऽवसुः । दधाति । रत्नम् । स्वधयोः । अपीच्यम् । मदिन्ऽतमः । मत्सरः । इन्द्रियः । रसः ॥ ९.८६.१०

    ऋग्वेद - मण्डल » 9; सूक्त » 86; मन्त्र » 10
    अष्टक » 7; अध्याय » 3; वर्ग » 13; मन्त्र » 5
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    संस्कृत (1)

    पदार्थः

    स परमात्मा (यज्ञस्य) अध्वरस्य (ज्योतिः) तेजोऽस्ति। अपि च (मधु) आनन्दरूपोऽस्ति (प्रियं, पवते) यस्तस्य प्रियङ्करोति तं पवित्रयति। (देवानां) सर्वलोकलोकान्तराणां (पिता) रक्षकः। अपि च (जनिता) जनकः (विभूवसुः) अपि चात्यन्तैश्वर्य्यवान् अस्ति। (स्वधयोः, अपीच्यं) तथा द्यावापृथिव्योरन्तर्गतं (रत्नं) मणिं (दधाति) धारणङ्करोति। अपि च स परमात्मा (मदिन्तमः) आनन्दरूपोऽस्ति। तथा (मत्सरः) सर्वानन्ददायकः। अपि च (इन्द्रियः) ऐश्वर्य्यवान् तथा (रसः) आनन्दस्वरूपोऽस्ति ॥१०॥

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    हिन्दी (3)

    पदार्थ

    वह परमात्मा (यज्ञस्य) यज्ञ की (ज्योतिः) ज्योति है और (मधु) आनन्दरूप है। प्रियं (पवते) जो उससे प्रेम करते हैं, उन्हें पवित्र करता है। (देवानां) सब लोक-लोकान्तरों का (पिता) पालन करनेवाला और (जनिता) उत्पन्न करनेवाला है (विभूवसुः) और अत्यन्त ऐश्वर्य्यवाला है। (स्वधयोरपीच्यं) तथा द्यावा-पृथिवी के अन्तर्गत (रत्नं) रत्नों को (दधाति) धारण करता है और वह परमात्मा (मदिन्तमः) आनन्दस्वरूप है तथा (मत्सरः) सबको आनन्द देनेवाला है और (इन्द्रियः) ऐश्वर्य्ययुक्त है तथा (रसः) आनन्दस्वरूप है ॥१०॥

    भावार्थ

    इस मन्त्र में परमात्मा को नानाविध रत्नों का धाता, विधाता और निर्माता कथन किया है। अर्थात् वही सृष्टि का धारण करनेवाला है, वही पालन करनेवाला है और वही प्रलय करनेवाला है। इस मन्त्र में “मत्सर” और मदादिक जो नाम आये हैं, वे परमात्मा के गौरव को कथन करते हैं। आधुनिक संस्कृत में मद मत्सरादि नाम बुरे अर्थों में आने लगे हैं। वेद में इनके ये अर्थ न थे। इससे स्पष्ट सिद्ध होता है कि आधुनिक संस्कृत और वैदिक संस्कृत में बड़ा प्रभेद है  ॥१०॥ १३॥

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    विषय

    आत्मा का वर्णन।

    भावार्थ

    (यज्ञस्य ज्योतिः) यज्ञवेदि में अग्नि के तुल्य, (प्रियम् मधु) मधु, अन्न जल के तुल्य तृप्तिकारक, अतिप्रिय, (देवानां पिता) सुखप्रद प्राण गणों का प्रभुवत् पालक, पितावत् उत्पादक, (जनिता) माता के समान अपने आश्रय में ही उत्पन्न करने वाला, (जीव-स्वधयोः) अपने स्वशक्ति से धारण करने योग्य दोनों प्राणों के बल पर (रत्नं) रमण करने योग्य साधन इस देह को (अपीच्यं) स्वयं भीतर छुपे २ दधाति (धारण) करता है। वह (मदिन्तमः) स्वयं अति आनन्दमय (मत्सरः) स्वतः तृप्त (इन्द्रियः) समस्त ऐश्वर्य का भोक्ता (रसः) रसरूप, बलरूप है।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    ऋषिः—१—१० आकृष्टामाषाः। ११–२० सिकता निवावरी। २१–३० पृश्नयोऽजाः। ३१-४० त्रय ऋषिगणाः। ४१—४५ अत्रिः। ४६–४८ गृत्समदः। पवमानः सोमो देवता ॥ छन्द:– १, ६, २१, २६, ३३, ४० जगती। २, ७, ८, ११, १२,१७, २०, २३, ३०, ३१, ३४, ३५, ३६, ३८, ३९, ४२, ४४, ४७ विराड् जगती। ३–५, ९, १०, १३, १६, १८, १९, २२, २५, २७, ३२, ३७, ४१, ४६ निचृज्जगती। १४, १५, २८, २९, ४३, ४८ पादनिचृज्जगती। २४ आर्ची जगती। ४५ आर्ची स्वराड् जगती॥

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    विषय

    'देवानां पिता' सोमः

    पदार्थ

    यह सोम (यज्ञस्य ज्योतिः) = यज्ञ का प्रकाशक है। यह (प्रियं मधु) = प्रीतिजनक मधुर रस को (पवते) = प्राप्त कराता है । (देवानां) = पिता दिव्यगुणों का रक्षक है, (जनिता) = शक्तियों का प्रादुर्भाव करनेवाला है । (विभूवसुः) = व्यापक धनवाला है। यह सोम (स्वधयोः) = द्यावापृथिवी में आत्मा [स्व] को धारण करनेवाले [धा] मस्तिष्क व शरीर में (अपीच्यं) = अन्तर्हित- सुगुप्त रूप से वर्तमान (रत्नम्) = ज्ञान व शक्ति रूप रमणीय धन को (दधाति) = धारण करता है। इस प्रकार (मदिन्तम:) = यह उत्कृष्ट आनन्द को प्राप्त करानेवाला होता है (मत्सरः) = उल्लास का संचार करनेवाला यह सोम (इन्द्रिय:) = [इन्द्रियं वीर्यं बलम्] बल का वर्धक है और (रसः) = जीवन को रस [आनन्द] वाला बनाता है

    भावार्थ

    भावार्थ- सोम के रक्षित होने पर जीवन में यज्ञों का प्रवर्तन होता है, दिव्यगुणों का वर्धन होता है और अंग-प्रत्यंग अपने-अपने धन से युक्त होता है । इन रेतःकणों का नाम 'सिकता' है। इनको रक्षित करनेवाले ऋषि का भी 'सिकता' कहलाती है, यह निश्चय से प्रभु का उपासन करनेवाली 'निवावरी' है। यह सोमशंसन करते हुए कहती है-

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    इंग्लिश (1)

    Meaning

    Light of human and cosmic yajna, Soma vibrates pure, purifying and omnipresent, dearest most delicious honeyed spirit of life, creator and sustainer of divinities and master of infinite wealth and power. It holds and commands the jewel wealth of its own power and potential hidden in earth and heaven and vibrates in the mysteries of nature and humanity — divinity most joyous, ecstatic, glorious, pure bliss that it is.

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    या मंत्रात परमेश्वराला नाना प्रकारच्या रत्नांचा धाता, विधाता व निर्माता म्हटलेले आहे. अर्थात तोच सृष्टीचा धारणकर्ता आहे, तोच पालनकर्ता आहे व तोच प्रलयकर्ता आहे. या मंत्रात ‘‘मत्सर’’ व मादादिक नावे आलेली आहेत. ती परमेश्वराच्या गौरवाचे कथन करतात. आधुनिक संस्कृतमध्ये मद, मत्सर इत्यादी नावे वाईट अर्थाने वापरलेली आहेत. वेदात त्यांचे अर्थ हे नव्हते. यावरून स्पष्ट सिद्ध होते की, आधुनिक संस्कृत व वैदिक संस्कृतमध्ये मोठा भेद आहे. ॥१०॥

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