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अथर्ववेद के काण्ड - 10 के सूक्त 7 के मन्त्र
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  • अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 7/ मन्त्र 17
    ऋषिः - अथर्वा, क्षुद्रः देवता - स्कन्धः, आत्मा छन्दः - त्र्यवसाना षट्पदा जगती सूक्तम् - सर्वाधारवर्णन सूक्त
    16

    ये पुरु॑षे॒ ब्रह्म॑ वि॒दुस्ते वि॑दुः परमे॒ष्ठिन॑म्। यो वेद॑ परमे॒ष्ठिनं॒ यश्च॒ वेद॑ प्र॒जाप॑तिम्। ज्ये॒ष्ठं ये ब्राह्म॑णं वि॒दुस्ते॑ स्क॒म्भम॑नु॒संवि॑दुः ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    ये । पुरु॑षे । ब्रह्म॑ । वि॒दु: । ते । वि॒दु॒: । प॒र॒मे॒ऽस्थिन॑म् । य: । वेद॑ । प॒र॒मे॒ऽस्थिन॑म् । य: । च॒ । वेद॑ । प्र॒जाऽप॑तिम् । ज्ये॒ष्ठम् । ये । ब्राह्म॑णम् । वि॒दु: । ते । स्क॒म्भम् । अ॒नु॒ऽसंवि॑दु: ॥७.१७॥


    स्वर रहित मन्त्र

    ये पुरुषे ब्रह्म विदुस्ते विदुः परमेष्ठिनम्। यो वेद परमेष्ठिनं यश्च वेद प्रजापतिम्। ज्येष्ठं ये ब्राह्मणं विदुस्ते स्कम्भमनुसंविदुः ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    ये । पुरुषे । ब्रह्म । विदु: । ते । विदु: । परमेऽस्थिनम् । य: । वेद । परमेऽस्थिनम् । य: । च । वेद । प्रजाऽपतिम् । ज्येष्ठम् । ये । ब्राह्मणम् । विदु: । ते । स्कम्भम् । अनुऽसंविदु: ॥७.१७॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 10; सूक्त » 7; मन्त्र » 17
    Acknowledgment

    हिन्दी (5)

    विषय

    ब्रह्म के स्वरूप के विचार का उपदेश।

    पदार्थ

    (ये) जो लोग (पुरुषे) मनुष्य में (ब्रह्म) ब्रह्म [परमात्मा] को (विदुः) जानते हैं, (ते) वे (परमेष्ठिनम्) परमेष्ठी [सब से ऊपर स्थित परमात्मा] को (विदुः) जानते हैं। (यः) जो [उस को] (परमेष्ठिनम्) परमेष्ठी (वेद) जानता है, (च) और (यः) जो [उस को] (प्रजापतिम्) प्रजापति [प्राणियों का रक्षक] (वेद) जानता है। और (ये) जो लोग [उसको] (ज्येष्ठम्) ज्येष्ठ [सब से बड़ा वा सबसे श्रेष्ठ] (ब्राह्मणम्) ब्राह्मण [वेदज्ञाता] (विदुः) जानते हैं, (ते) वे सब (स्कम्भम्) स्कम्भ [धारण करनेवाले परमात्मा] को (अनुसंविदुः) पूर्णरूप से पहिचानते हैं ॥१७॥

    भावार्थ

    जो मनुष्य परमात्मा को अपने भीतर और बाहिर उसके अचल उच्च गुणों से साक्षात् करते हैं, वे अपने आत्मा को उच्च बनाते हैं ॥१७॥

    टिप्पणी

    १७−(ये) ब्रह्मज्ञानिनः (पुरुषे) मनुष्ये (ब्रह्म) परमात्मानम् (विदुः) जानन्ति (ते) विद्वांसः (विदुः) (परमेष्ठिनम्) अ० १।७।२। सर्वोपरिविराजमानम् (यः) पुरुषः (वेद) जानाति (प्रजापतिम्) सर्वप्राणिरक्षकम् (ज्येष्ठम्) वृद्ध वा प्रशस्य-इष्ठन्। वृद्धस्य च। पा० ५।३।६२। ज्यादेशः। वृद्धतमम्। प्रशस्यतमम् (ये) (ब्राह्मणम्) अ० २।६।३। वेदज्ञातारम् (अनुसंविदुः) पूर्णरीत्या जानन्ति। अन्यत् पूर्ववत् ॥

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    विषय

    परमेष्ठी, प्रजापति

    पदार्थ

    १. (ये) = जो (पुरुषे) = इस पुरुष-शरीर में (ब्रह्म विदुः) = उस ब्रह्म को जानते हैं, (ते) = वे ही (परमेष्ठिनम्) = परम स्थान में स्थित प्रभु को (विदुः) = वस्तुत: जानते हैं। प्रभु का जब भी दर्शन होगा, हृदय में ही तो होगा। सारे विश्व में उसकी महिमा का प्रकाश होता है, हृदय में प्रभु का दर्शन। (यः) = जो (परमेष्ठिनं वेद) = उस परम स्थान में स्थित प्रभु को (वेद) = जानता है, (च) = और (य:) = जो उसे (प्रजापतिं वेद) = सब प्रजाओं का रक्षक जानता है ये-जो उस ज्येष्ठम्-सर्वश्रेष्ठ-सर्वमहान् ब्राह्मणम्-ज्ञानपुञ्ज प्रभु को विदुः-जानते हैं, ते-वे स्कम्भम्-उस सर्वाधार को अनुसंविदुः अनुकूलता से जाननेवाले होते हैं।

    भावार्थ

    प्रभु हमारे हृदयों में स्थित हैं। वे 'परमेष्ठी, प्रजापति, ज्येष्ठ, ज्ञानपुञ्ज व सर्वाधार' हैं।

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    भाषार्थ

    (ये) जो (पुरुष) पुरी में शयन करने वाले जीवात्मा में (ब्रह्म विदुः) ब्रह्म को जानते हैं, (ते) वे (परमेष्ठिनम्, विदुः) परमेश्वर के परमेष्ठीस्वरूप को जानते हैं। (य) जो (परमेष्ठिनम्, वेद) उस के परमेष्ठी स्वरूप को जानता है (यः च) और जो (प्रजापतिम् वेद) उस के प्रजापति स्वरूप को जानता है, तथा (ये) जो (ब्राह्मणम्) ब्रह्मवेद [अथर्ववेद] द्वारा प्रतिपादित उसके (ज्येष्ठम्) सर्वज्येष्ठ स्वरूप को (विदुः) जानते हैं, (ते) वे (अनु) तत्पश्चात् (स्कम्भम्) स्कम्भ को (संविदुः) सम्यक् रूप में जानते हैं।

    टिप्पणी

    [प्रकृति-और-पुरुष-[जीवात्मा] में, परम है पुरुष [जीवात्मा], इस परम-पुरुष में स्थित परमेश्वर परमेष्ठी नाम वाला है। तथा प्रकृति में स्थित हुआ परमेश्वर जब प्रकृतिजन्य प्रजा का स्रष्टा होता है तब वह प्रजापति स्वरूप है। परमेष्ठी, प्रजापति तथा साथ ही उस को सबसे ज्येष्ठ जानना- इन तीन स्वरूपों से विशिष्ट परमेश्वर स्कम्भ है, स्कम्भपद वाच्य है। ब्राह्मणम् = अथवा "ब्रह्म", स्वार्थे "अण प्रत्ययः"]।

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    मन्त्रार्थ

    (ये पुरुषे ब्रह्म विदुः) जो पूर्ण पुरुष परमात्मा में रखे ब्रह्माण्ड को जानते हैं (ते परमेष्ठिनं विदुः ) वे परमेष्ठी-परम-स्थान में स्थित परमाणुमय आकाश को जानते हैं "आपो वै प्रजापतिः परमेष्ठी ता हि परमे स्थाने तिष्ठन्ति" (शत० ८|१२|३|१३) (यः परमेष्ठिनं वेद यः-च-प्रजापतिं वेद) जो जन पूर्वोक्त परमेष्ठी को जानता है और प्रजापति को जानता है (ये ज्येष्ठ ब्राह्मणं विदुः) वे महान् वैश्वानर अग्नि को जानते हैं "एष वा अग्निर्वैश्वानरो यद् ब्राह्मण:" (ऐत० ३।७१३२) (तं स्कम्भम् अनु-संविदुः) वे विद्वान् सर्वाधार परमात्मा को अनुकूलता से. सम्यक् जानते हैं ॥१७॥

    टिप्पणी

    इस सूक्त पर सायणभाष्य नहीं है, परन्तु इस पर टिप्पणी में कहा है कि स्कम्भ इति सनातनतमो देवो "ब्रह्मणो प्याद्यभूतः । अतो ज्येष्ठं ब्रह्म इति तस्य संज्ञा । विराडपि तस्मिन्नेव समाहितः” । अर्थात् स्कम्भ यह अत्यन्त सनातन देव है जो ब्रह्म से भी आदि हैं अतः ज्येष्ठ ब्रह्म यह उसका नाम है विराड् भी उसमें समाहित है । यह सायण का विचार है ॥

    विशेष

    ऋषिः—अथर्वा ( स्थिर-योगयुक्त ) देवनाः - स्कम्भः, आत्मा वा ( स्कम्भ-विश्व का खम्भा या स्कम्मरूप आत्मा-चेतन तत्त्व-परमात्मा )

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    विषय

    ज्येष्ठ ब्रह्म या स्कम्भ का स्वरूप वर्णन।

    भावार्थ

    (ये) जो विद्वान् योगी जन (पुरुषे) इस पुरुष=शक्ति रूप में विद्यमान (ब्रह्म) उस महान् ब्रह्म का (विदुः) साक्षात् ज्ञान करते हैं (ते) वे ही (परमेष्ठिनम्) पर पद में स्थित ब्रह्म का भी (विदुः) साक्षात्कार करते हैं और (यः) जो ब्रह्मवेत्ता (परमेष्ठिनम्) उस परमधाम में स्थित परम पुरुष का (वेद) साक्षात् ज्ञान कर लेता है (यः च) और जो (प्रजापतिम्) इस समस्त चर, अचर प्रजा के पालक का (वेद) साक्षात् ज्ञान प्राप्त कर लेता है और (ये) जो ब्रह्मवेदी गण (ज्येष्ठम्) परम ज्येष्ठ सबसे उत्कृष्ट (ब्राह्मणं) ब्रह्म के पुरुषमय विराट् रुप को (विदुः) साक्षात् प्राप्त करते हैं (ते) वे ही (स्कम्भम्) उस परम जगदाधार स्कम्भ का (अनु संविदुः) भली प्रकार ज्ञान लाभ करते हैं।

    टिप्पणी

    (ष०) ‘ते स्कम्भमर [ नु ] सं विदुः’ इति पैप्प० सं०।

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    अथर्वा क्षुद्र ऋषिः। मन्त्रोक्तः स्कम्भ अध्यात्मं वा देवता। स्कम्भ सूक्तम्॥ १ विराट् जगती, २, ८ भुरिजौ, ७, १३ परोष्णिक्, ११, १५, २०, २२, ३७, ३९ उपरिष्टात् ज्योतिर्जगत्यः, १०, १४, १६, १८ उपरिष्टानुबृहत्यः, १७ त्र्यवसानाषटपदा जगती, २१ बृहतीगर्भा अनुष्टुप्, २३, ३०, ३७, ४० अनुष्टुभः, ३१ मध्येज्योतिर्जगती, ३२, ३४, ३६ उपरिष्टाद् विराड् बृहत्यः, ३३ परा विराड् अनुष्टुप्, ३५ चतुष्पदा जगती, ३८, ३-६, ९, १२, १९, ४०, ४२-४३ त्रिष्टुभः, ४१ आर्षी त्रिपाद् गायत्री, ४४ द्विपदा वा पञ्चपदां निवृत् पदपंक्तिः। चतुश्चत्वारिंशदृचं सूक्तम्॥

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    इंग्लिश (4)

    Subject

    Skambha Sukta

    Meaning

    Those who experience and this way know Brahma, immanent Purusha, vibrating in the heart and soul of the individual purusha, know the Supreme Purusha.He that knows the Supreme, he that knows Prajapati, the creator, and they that know the Supreme Soul celebrated in the Veda, they know and apprehend the Skambha, i.e., the creator Prajapati, the immanent Brahma pervasive in nature and the individual soul, and the transcendent Brahma, the One Skambha reflecting and existing in variety of presence and function, as It is.

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    Translation

    They who recognize the Lord supreme in Purusa (the cosmic man), they know the Paramasthi (the Lord of the highest abode). He, who knows the Paramesthi and He, who knows the Eldest Lord supreme (jyestha Brahma), they come to know the Skambha (the support of the universe).

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    Translation

    Those who understand Brahman, the Supreme Beng in Purusha, the man’s heart know the All-supporting Lord. Those including him who knows Prajapati, the All-supporting God, who knows the master of creation and who knows the Supreme Divinity, who knows Skambha the Supporting Divine Power.

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    Translation

    They who in man understand Brahma, the divine essence, know Him Who is Supreme? He who knows Him Who is Supreme, and he who knows the Lord of life, these know the loftiest Power Divine, and thence know the All-pervading God thoroughly.

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    संस्कृत (1)

    सूचना

    कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।

    टिप्पणीः

    १७−(ये) ब्रह्मज्ञानिनः (पुरुषे) मनुष्ये (ब्रह्म) परमात्मानम् (विदुः) जानन्ति (ते) विद्वांसः (विदुः) (परमेष्ठिनम्) अ० १।७।२। सर्वोपरिविराजमानम् (यः) पुरुषः (वेद) जानाति (प्रजापतिम्) सर्वप्राणिरक्षकम् (ज्येष्ठम्) वृद्ध वा प्रशस्य-इष्ठन्। वृद्धस्य च। पा० ५।३।६२। ज्यादेशः। वृद्धतमम्। प्रशस्यतमम् (ये) (ब्राह्मणम्) अ० २।६।३। वेदज्ञातारम् (अनुसंविदुः) पूर्णरीत्या जानन्ति। अन्यत् पूर्ववत् ॥

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    बंगाली (1)

    পদার্থ

    য়ে পুরুষে ব্রহ্ম বিদুস্তে বিদুঃ পরমেষ্ঠিনম্।

    য়ো বেদ পরমেষ্ঠিনম্ য়শ্চো বেদ প্রজাপতিম্।

    জ্যেষ্ঠম্ য়ে ব্রাহ্মণম্ বিদুস্তে স্কম্ভমনুসম্বিদুঃ।।৩৯।।

    (অথর্ববেদ ১০।৭।১৭)

     

    পদার্থঃ (য়ে) যে ব্যাক্তি (পুরুষে) মনুষ্যজাতির মধ্যে (ব্রহ্ম) ব্রহ্ম [পরমাত্মা] কে (বিদুস্তে) জেনে থাকেন, তিনি পরমাত্মা যে (পরমেষ্ঠিনম্) পরমেষ্ঠী [ সকল কিছুতে স্থিত]  সেই বিষয়ও (বিদুঃ) জেনে থাকেন । (য়ঃ) যে ব্যাক্তি [তাঁকে] (পরমেষ্ঠিনম্) পরমেষ্ঠীরূপে (বেদ) জেনে থাকেন, (চ) এবং (য়ঃ) যিনি [তাঁকে] (প্রজাপতিম্) প্রজাপতিরূপে [ প্রাণিকুলের রক্ষাকারী] কে (বেদ) জেনে থাকেন এবং (য়ে) যে ব্যক্তি [তাঁকে] (জ্যেষ্ঠম্) সর্বজ্যেষ্ঠ [ সবার থেকে বড় অথবা জ্যেষ্ঠ ] (ব্রাহ্মণম্) ব্রাহ্মণ [ বেদজ্ঞাতা ] (বিদুঃ) হিসেবে জানেন, (তে) তিনি (স্কম্ভম্) সমগ্র জগত ধারণকারী পরমাত্মাকে (অনুসম্ বিদুঃ) পূর্ণরূপে জেনে থাকেন ।

     

    ভাবার্থ

    ভাবার্থঃ মনুষ্যের মধ্যে যে ব্যক্তি পরমাত্মাকে সর্বব্যাপী পরমেষ্ঠী হিসেবে, সকলের পালক প্রজাপতি হিসেবে, সকলের আদি সর্বজ্যেষ্ঠ হিসেবে জেনে থাকেন, তিনিই সেই সমগ্র জগত ধারণকারী পরমাত্মাকে পূর্ণরূপে জানেন।।৩৯।। 

     

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