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अथर्ववेद के काण्ड - 10 के सूक्त 7 के मन्त्र
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  • अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 7/ मन्त्र 26
    ऋषिः - अथर्वा, क्षुद्रः देवता - स्कन्धः, आत्मा छन्दः - अनुष्टुप् सूक्तम् - सर्वाधारवर्णन सूक्त
    21

    यत्र॑ स्क॒म्भः प्र॑ज॒नय॑न्पुरा॒णं व्यव॑र्तयत्। एकं॒ तदङ्गं॑ स्क॒म्भस्य॑ पुरा॒णम॑नु॒संवि॑दुः ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    यत्र॑ । स्क॒म्भ: । प्र॒ऽज॒नय॑न् । पु॒रा॒णम् । वि॒ऽअव॑र्तयत् । एक॑म् । तत् । अङ्ग॑म् । स्क॒म्भस्य॑ । पु॒रा॒णम् । अ॒नु॒ऽसंवि॑दु: ॥७.२६॥


    स्वर रहित मन्त्र

    यत्र स्कम्भः प्रजनयन्पुराणं व्यवर्तयत्। एकं तदङ्गं स्कम्भस्य पुराणमनुसंविदुः ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    यत्र । स्कम्भ: । प्रऽजनयन् । पुराणम् । विऽअवर्तयत् । एकम् । तत् । अङ्गम् । स्कम्भस्य । पुराणम् । अनुऽसंविदु: ॥७.२६॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 10; सूक्त » 7; मन्त्र » 26
    Acknowledgment

    हिन्दी (5)

    विषय

    ब्रह्म के स्वरूप के विचार का उपदेश।

    पदार्थ

    (यत्र) जहाँ [जिस काल में] [कार्यरूप जगत् को] (प्रजनयन्) उत्पन्न करते हुए (स्कम्भः) स्कम्भ [धारण करनेवाले परमात्मा] ने (पुराणम्) पुराने [कारण] को (व्यवर्तयत्) चक्राकार घुमाया, (तत्) उस (पुराणम्) पुराने [कारण] को (स्कम्भस्य) स्कम्भ [धारण करनेवाले परमेश्वर] का (एकम् अङ्गम्) एक अङ्ग वे [तत्त्ववेत्ता] (अनुसंविदुः) पूर्ण रीति से जानते हैं ॥२६॥

    भावार्थ

    कारणरूप पदार्थ कार्यरूप जगत् से पुरातन है। उस कारणरूप पदार्थ को विविध प्रकार चेष्टा देकर उसके जिस अङ्ग से सब जगत् रचा गया है, वह परमात्मा के सामर्थ्य का छोटा अंश है ॥२६॥

    टिप्पणी

    २६−(यत्र) यस्मिन् काले (स्कम्भः) सर्वधारकः परमेश्वरः (प्रजनयन्) संसारमुत्पादयन् (पुराणम्) सायंचिरंप्राह्णेप्रगे०। पा० ४।३।२३। पुरा-ट्यु। तुडभावः। यद्वा, पुरा+णीञ् प्रापणे−ड, णत्वम्। पुरातनं कारणम् (व्यवर्तयत्) चक्राकारेण वर्तनमकारयत् (अनुसंविदुः) अनुसन्धानेन यथावत् जानन्ति ॥

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    विषय

    स्कम्भ का एक अङ्ग 'पुराण'

    पदार्थ

    १. (यत्र) = जहाँ (स्कम्भ:) = वे सर्वांधार प्रभु (प्रजनयन्) = इस सृष्टि की उत्पत्ति के हेत से (पुराणम्) = प्रवाहरूप से सनातन प्रधान [प्रकृति] को (व्यवर्तयत्) = निवृत्त करते हैं-विविध रूपों में परिवर्तित करते हैं। वहाँ ज्ञानी पुरुष (तत् पुराणम्) = उस सनातन प्रधान को (स्कम्भस्य) = उस सर्वाधार प्रभु का ही (एकं अङ्गम्) = एक अङ्ग (अनुसंविदुः) = अनुसन्धान करते हुए सम्यक् जानते हैं। इस प्रधान [Matter] का भी अन्तिम स्वरूप सामर्थ्य-शक्ति [energy] ही है और यह सामर्थ्य प्रभु का ही तो अङ्ग है-गुण है।

    भावार्थ

    प्रकृति' कभी विकृति के रूप में और कभी फिर प्रकृति के रूप में चली आती हुई 'पुराण' [सन्तान] है। प्रभु इसी का विवर्तन करते हुए सृष्टि को जन्म देते हैं। यह पुराण प्रकृति भी अन्तत: सामर्थ्य के रूप में होती हुई उस प्रभु का ही एक अङ्ग है।

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    भाषार्थ

    (यत्र) जिस सृष्टिकाल में (प्रजनयन्) जगत् को पैदा करता हुआ (स्कम्भः) स्कम्भ (पुराणम्) पुराण को (व्यवर्तयत्) विविध रूपों में वर्तमान करता है (तत् पुराणम्) उस पुराण को (जनाः, मन्त्र २५) वेदवेत्ता जन (स्कम्भस्य) स्कम्भ का (एकम् अङ्गम्) एक अङ्ग (अनु सं विदुः) आनुकूल्येन परस्पर सहमत हो कर जानते हैं।

    टिप्पणी

    [पुराण = पुराकाल से वर्तमान प्रकृति। मन्त्र २५ में प्रकृति को "असत्" अनभिव्यक्तावस्था में वर्तमान कहा है, और मन्त्र २६ में उसे पुराण कहा है]।

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    मन्त्रार्थ

    (स्कम्भः प्रजनयन् यत्र पुराणं व्यवर्तयत्) सर्वाधारभूत परमात्मा जगदुत्पादन हेतु जगत् उत्पन्न करने के लिये जिस अङ्गरूप अव्यक्त प्रकृति में पुराणरूप-पुराने रूप को विवर्तित करता है-जगत् रूप में परिणित करता है (स्कम्भस्य तत्-एकम्-अङ्गं पुराणम्-अनुसंविदुः) सर्वाधारभूत परमात्मा का वह अव्यक्तरूप पुरातन एक अङ्ग अनुसन्धान से अनुमान से जानते हैं ॥२६॥

    टिप्पणी

    इस सूक्त पर सायणभाष्य नहीं है, परन्तु इस पर टिप्पणी में कहा है कि स्कम्भ इति सनातनतमो देवो "ब्रह्मणो प्याद्यभूतः । अतो ज्येष्ठं ब्रह्म इति तस्य संज्ञा । विराडपि तस्मिन्नेव समाहितः” । अर्थात् स्कम्भ यह अत्यन्त सनातन देव है जो ब्रह्म से भी आदि हैं अतः ज्येष्ठ ब्रह्म यह उसका नाम है विराड् भी उसमें समाहित है । यह सायण का विचार है ॥

    विशेष

    ऋषिः—अथर्वा ( स्थिर-योगयुक्त ) देवनाः - स्कम्भः, आत्मा वा ( स्कम्भ-विश्व का खम्भा या स्कम्मरूप आत्मा-चेतन तत्त्व-परमात्मा )

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    विषय

    ज्येष्ठ ब्रह्म या स्कम्भ का स्वरूप वर्णन।

    भावार्थ

    (यत्र) जिस रूप में (स्कम्भः) ‘स्कम्भ’ ने (प्र-जनयन्) सृष्टि उत्पन्न करते हुए (पुराणं वि अवर्तयत्) ‘पुराण’ नाम हिरण्यगर्भ को बनाया। (तत्) वह भी (स्कम्भस्य) ‘स्कम्भ’ जगदाधार परमेश्वर का (एकं अङ्गम्) एक अङ्ग=रूप है जिसको विद्वान् लोग (पुराणम्) ‘पुराण’ नाम से (अनु संविदुः) जानते हैं।

    टिप्पणी

    (च०) ‘पुराणमरसं विदुः’ इति पैप्प० सं०।

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    अथर्वा क्षुद्र ऋषिः। मन्त्रोक्तः स्कम्भ अध्यात्मं वा देवता। स्कम्भ सूक्तम्॥ १ विराट् जगती, २, ८ भुरिजौ, ७, १३ परोष्णिक्, ११, १५, २०, २२, ३७, ३९ उपरिष्टात् ज्योतिर्जगत्यः, १०, १४, १६, १८ उपरिष्टानुबृहत्यः, १७ त्र्यवसानाषटपदा जगती, २१ बृहतीगर्भा अनुष्टुप्, २३, ३०, ३७, ४० अनुष्टुभः, ३१ मध्येज्योतिर्जगती, ३२, ३४, ३६ उपरिष्टाद् विराड् बृहत्यः, ३३ परा विराड् अनुष्टुप्, ३५ चतुष्पदा जगती, ३८, ३-६, ९, १२, १९, ४०, ४२-४३ त्रिष्टुभः, ४१ आर्षी त्रिपाद् गायत्री, ४४ द्विपदा वा पञ्चपदां निवृत् पदपंक्तिः। चतुश्चत्वारिंशदृचं सूक्तम्॥

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    इंग्लिश (4)

    Subject

    Skambha Sukta

    Meaning

    When and where Skambha, creating the world of existence, repeats the old story of creation, that too is only one limb of Skambha which, the sages know, is a new version of the old and eternal.

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    Translation

    Where the Skambha, starting creation, reproduced the old one (purānam) that old one, they consider to be only a part of thé Skambha.

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    Translation

    Where Skambha, the All-Supporting Divine Power arranging the cosmic order gives the worldly objects of previous cycle a new shape and form that single part of Skambha, the learned man recognize as Purana, the process in which previous objects are manifested in new shape and forms.

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    Translation

    Where God creating the universe gave the ancient matter its diverse shape and form, the wise recognize that ancient Matter as a part of God.

    Footnote

    Where: In the beginning of creation God is higher and vaster than Matter. God is indivisible, and has no material part. Metaphorically Matter has been spoken of as a part of God, smaller than Him in all aspects.

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    संस्कृत (1)

    सूचना

    कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।

    टिप्पणीः

    २६−(यत्र) यस्मिन् काले (स्कम्भः) सर्वधारकः परमेश्वरः (प्रजनयन्) संसारमुत्पादयन् (पुराणम्) सायंचिरंप्राह्णेप्रगे०। पा० ४।३।२३। पुरा-ट्यु। तुडभावः। यद्वा, पुरा+णीञ् प्रापणे−ड, णत्वम्। पुरातनं कारणम् (व्यवर्तयत्) चक्राकारेण वर्तनमकारयत् (अनुसंविदुः) अनुसन्धानेन यथावत् जानन्ति ॥

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