अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 3/ मन्त्र 18
ऋषिः - यमः
देवता - स्वर्गः, ओदनः, अग्निः
छन्दः - त्रिष्टुप्
सूक्तम् - स्वर्गौदन सूक्त
19
ग्राहिं॑ पा॒प्मान॒मति॒ ताँ अ॑याम॒ तमो॒ व्यस्य॒ प्र व॑दासि व॒ल्गु। वा॑नस्प॒त्य उद्य॑तो॒ मा जि॑हिंसी॒र्मा त॑ण्डु॒लं वि श॑रीर्देव॒यन्त॑म् ॥
स्वर सहित पद पाठग्राहि॑म् । पा॒प्मान॑म् । अति॑ । तान् । अ॒या॒म॒ । तम॑: । वि । अ॒स्य॒ । प्र । व॒दा॒सि॒ । व॒ल्गु । वा॒न॒स्प॒त्य: । उत्ऽय॑त् । मा । जि॒हिं॒सी॒: । मा । त॒ण्डु॒लम् । वि । श॒री॒: । दे॒व॒ऽयन्त॑म् ॥३.१८॥
स्वर रहित मन्त्र
ग्राहिं पाप्मानमति ताँ अयाम तमो व्यस्य प्र वदासि वल्गु। वानस्पत्य उद्यतो मा जिहिंसीर्मा तण्डुलं वि शरीर्देवयन्तम् ॥
स्वर रहित पद पाठग्राहिम् । पाप्मानम् । अति । तान् । अयाम । तम: । वि । अस्य । प्र । वदासि । वल्गु । वानस्पत्य: । उत्ऽयत् । मा । जिहिंसी: । मा । तण्डुलम् । वि । शरी: । देवऽयन्तम् ॥३.१८॥
भाष्य भाग
हिन्दी (4)
विषय
परस्पर उन्नति करने का उपदेश।
पदार्थ
(ग्राहिम्) जकड़नेवाली [गठिया आदि शारीरिक पीड़ा] और (पाप्मानम्) पाप [मिथ्या कथन आदि मानसिक रोग] को (अति) लाँघ कर (तान्) उन [पुत्र आदि] को (अयाम) हम प्राप्त करें, [हे विद्वान् !] (तमः) अन्धकार को (वि) अलग (अस्य) फेंक दे और (वल्गु) सुन्दर (प्र वदासि) उपदेश कर। तू (वानस्पत्यः) सेवनीय शास्त्रों के पालनेवालों का हितकारी और (उद्यतः) उद्यमी होकर [हमें] (मा जिहिंसीः) मत दुःख दे और (देवयन्तम्) विद्वानों के स्नेही (तण्डुलम्) चावल [अन्न] की राशि को (मा वि शरीः) मत इतर-वितर कर ॥१८॥
भावार्थ
मनुष्य शारीरिक और मानसिक रोग मिटाकर हित का उपदेश करें और परस्पर सुख बढ़ाकर अन्न आदि पदार्थों का संग्रह करें ॥१८॥
टिप्पणी
१८−(ग्राहिम्) अ० २।९।१। ग्रहणशीलां शारीरिकपीडाम् (पाप्मानम्) पापं मानसिकदोषम् (अति) अतीत्य (तान्) पुत्रादीन् (अयाम) अय गतौ। प्राप्नुयाम (तमः) अन्धकारम् (वि) विविधम् (अस्य) क्षिप (प्र वदासि) उपदिश (वल्गु) वलेर्गुक् च। उ० १।१९। वल प्राणने−उ प्रत्ययोः गुक् च। शोभनम् (वानस्पत्यः) म० १५। वनस्पति−ण्य। वनस्पतिभ्यः सेवनीयशास्त्रपालकेभ्यो हितः (उद्यतः) उद्यमी (मा जिहिंसीः) मा वधीः (तण्डुलम्) धान्यराशिम् (वि) विविधम् (मा शरीः) शॄ हिंसायाम्−लुङ्। मा शारीः। मा क्षिप (देवयन्तम्) अ० ७।२७।१। सुप आत्मनः क्यच्। पा० ३।१।८। देव−क्यच्, शतृ। नच्छन्दस्यपुत्रस्य। पा० ७।४।३५। ईत्वदीर्घयोर्निषेधः। देवान् श्रेष्ठपुरुषान् आत्मन इच्छन्तम् ॥
विषय
'ग्राहिं पाप्मानम्' अति
पदार्थ
१. जीव प्रार्थना करता है कि (ग्राहिम्) = शरीर को जकड़ लेनेवाले गठिया आदि रोगों को तथा (पाप्मानम्) = पापवृत्ति को, (तान्) = उन सब अशुभों को (अति अयाम) = हम लौष जाएँ। प्रभु इस प्रार्थना का उत्तर देते हुए कहते हैं कि [क] (तमः व्यस्य) = अन्धकार को दूर करके वल्गु (प्रवदासि) = तू सुन्दर शब्दों को ही बोलनेवाला बन। [ख] (वानस्पत्यः) = वनस्पतियों का ही सेवन करनेवाला तू सदा (उद्यत:) = कर्त्तव्यकर्मों के पालन में उद्यत रह । [ग] (मा जिहिंसी:) = हिंसा करनेवाला न बन। [घ] (देवयन्तम् तण्डुलम्) = तुझे देव बनाने की कामना करते हुए इस तण्डुल को-व्रीहि को (मा विशरी:) = शीर्ण मत कर, तेरे घर में यह तण्डुल सदा संचित रहे। यह तुझे देववृत्ति का बनानेवाला हो।
भावार्थ
हम प्रभु के इन उपदेशों को न भूलें [क] ज्ञान की वृद्धि करते हुए हम सुन्दर शब्द बोलें [ख] शाकभोजी बनकर कर्तव्यकर्मों में लगे रहें। [ग] अहिंसावृत्तिवाले हों [घ] दिव्यता प्राप्त करानेवाले ब्रीहि आदि भोजनों का ही प्रयोग करें। ऐसा करने पर हम रोगों व पापों से बचे रहेंगे।
भाषार्थ
(पाप्मानम्) पापी (ताम् ग्राहिम्) उस आलस्यवृत्ति का अकर्मण्यता का (अति अयाम) हम अतिमगन करें, उसे त्याग दें। हे पत्नी ! (तमः) तामसिक भावना को (व्यस्य) हटा कर (वल्गु) मनोहर (प्र वदासि) वचन बोला कर। (वानस्पत्य) हे वनस्पति के बने मुसल ! (उद्यतः) ऊपर की ओर उठता हुआ, उद्यम करता हुआ तू (मा जिहिंसीः) तण्डुल को चूरा-चूरा न कर, (मा) और न (विशरीः) इसे तोड़, (देवयन्तम्) क्योंकि [पक कर इस ने] माता, पिता, अतिथि आदि देवों की सेवा के लिये जाना है।
टिप्पणी
[कटुवचन तामसिक भावना के परिणाम होते हैं। गृहादि कृत्यों के लिये आलस्य और अकर्मण्यता का परित्याग करना चाहिये। धान कूटते समय मुसल का प्रहार ऐसा करना चाहिये कि न तो तण्डुलों का आटा बने और न वे टूटें]।
विषय
स्वर्गौदन की साधना या गृहस्थ धर्म का उपदेश।
भावार्थ
(ग्राहिम्) मन को पकड़ लेने वाली, शोक रूप पिशाची को और (ताम्) उस (पाप्मानम्) पाप प्रवृत्ति को भी (अति अयाम) हम पार कर जांय। हे राजन् ! तू (तमः व्यस्य) हमारे हृदय के शोक रूप अन्धकार को दूर करके (वल्गु) अति मनोहर वचन (प्र वदासि) कह, उत्तम शिक्षा दे। हे (वानस्पत्य) ! वनस्पति—वृक्ष के विकार लकड़ी के बने मूसल के समान राजकीय तेज के अंश से सम्पन्न दण्डकारी राजदण्ड ! (त्वम्) तू (उद्यतः) उठ कर (मा जिहिंसीः) हमें मत मार और जिस प्रकार मूसल आघात करता हुआ भी तुषों को दूर करता और (तण्डुलं मा) चावल को नहीं तोड़ता है उसी प्रकार हे राजदण्ड ! तू भी (देवयन्तं) देव के समान उत्तम आचरण करने-हारे पुरुष को (मा विशरीः) विशेष रूप से दण्डित मत कर।
टिप्पणी
(च०) ‘विशरैर्देवयन्तम्’ इति पैप्प० सं०।
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
यम ऋषिः। मन्त्रोक्तः स्वर्गौदनोऽग्निर्देवता। १, ४२, ४३, ४७ भुरिजः, ८, १२, २१, २२, २४ जगत्यः १३ [१] त्रिष्टुप, १७ स्वराट्, आर्षी पंक्तिः, ३.४ विराड्गर्भा पंक्तिः, ३९ अनुष्टुद्गर्भा पंक्तिः, ४४ परावृहती, ५५-६० व्यवसाना सप्तपदाऽतिजागतशाकरातिशाकरधार्त्यगर्भातिधृतयः [ ५५, ५७-६० कृतयः, ५६ विराट् कृतिः ]। षष्ट्यृचं सूक्तम्॥
इंग्लिश (4)
Subject
Svarga and Odana
Meaning
Dear partner, let us reject that freezing state of sloth and sin which seizes our will and action. Cast away gloom and depression, talk with love and enthusiasm. But the wooden pestle that is raised must not be violent, it must not break nor crush the rice which is for offering to the divinities.
Translation
The seizure, evil -- may we go beyond them; dissipate thou the darkness; mayest thou speak forth what is agreeable; made of forest tree, uplifted, do not injure; do not crush to pieces the god loving rice-grain.
Translation
We sabdue Grahi disease which is a sin. O learned man You driving away darkness of ignorance teach us whatever is good for us. Let this wood-made pestle used by, not give us trouble, Let not spoil (by over crushing) this rice, let not destroy him who is busy in the cause of Yajna.
Translation
Let us subdue the physical pain of gout, and mental anguish of untruth. O King speak sweetly having chased the darkness of our heart. O kingly punishment full of intensity like a wooden pestle, kill us not. Just as a pestle removes the husk, but breaks not the rice, so kingly punishment harm not a devotee!
संस्कृत (1)
सूचना
कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।
टिप्पणीः
१८−(ग्राहिम्) अ० २।९।१। ग्रहणशीलां शारीरिकपीडाम् (पाप्मानम्) पापं मानसिकदोषम् (अति) अतीत्य (तान्) पुत्रादीन् (अयाम) अय गतौ। प्राप्नुयाम (तमः) अन्धकारम् (वि) विविधम् (अस्य) क्षिप (प्र वदासि) उपदिश (वल्गु) वलेर्गुक् च। उ० १।१९। वल प्राणने−उ प्रत्ययोः गुक् च। शोभनम् (वानस्पत्यः) म० १५। वनस्पति−ण्य। वनस्पतिभ्यः सेवनीयशास्त्रपालकेभ्यो हितः (उद्यतः) उद्यमी (मा जिहिंसीः) मा वधीः (तण्डुलम्) धान्यराशिम् (वि) विविधम् (मा शरीः) शॄ हिंसायाम्−लुङ्। मा शारीः। मा क्षिप (देवयन्तम्) अ० ७।२७।१। सुप आत्मनः क्यच्। पा० ३।१।८। देव−क्यच्, शतृ। नच्छन्दस्यपुत्रस्य। पा० ७।४।३५। ईत्वदीर्घयोर्निषेधः। देवान् श्रेष्ठपुरुषान् आत्मन इच्छन्तम् ॥
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