अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 3/ मन्त्र 41
ऋषिः - यमः
देवता - स्वर्गः, ओदनः, अग्निः
छन्दः - त्रिष्टुप्
सूक्तम् - स्वर्गौदन सूक्त
20
वसो॒र्या धारा॒ मधु॑ना॒ प्रपी॑ना घृ॒तेन॑ मि॒श्रा अ॒मृत॑स्य॒ नाभ॑यः। सर्वा॒स्ता अव॑ रुन्धे स्व॒र्गः ष॒ष्ट्यां श॒रत्सु॑ निधि॒पा अ॒भीच्छा॑त् ॥
स्वर सहित पद पाठवसो॑: । या: । धारा॑: । मधु॑ना । प्रऽपी॑ना: । घृ॒तेन॑ । मि॒श्रा: । अ॒मृत॑स्य । नाभ॑य: । सर्वा॑: । ता: । अव॑ । रु॒न्धे॒ । स्व॒:ऽग: । ष॒ष्ट्याम्। श॒रत्ऽसु॑ । नि॒धि॒ऽपा: । अ॒भि । इ॒च्छा॒त् ॥३.४१॥
स्वर रहित मन्त्र
वसोर्या धारा मधुना प्रपीना घृतेन मिश्रा अमृतस्य नाभयः। सर्वास्ता अव रुन्धे स्वर्गः षष्ट्यां शरत्सु निधिपा अभीच्छात् ॥
स्वर रहित पद पाठवसो: । या: । धारा: । मधुना । प्रऽपीना: । घृतेन । मिश्रा: । अमृतस्य । नाभय: । सर्वा: । ता: । अव । रुन्धे । स्व:ऽग: । षष्ट्याम्। शरत्ऽसु । निधिऽपा: । अभि । इच्छात् ॥३.४१॥
भाष्य भाग
हिन्दी (4)
विषय
परस्पर उन्नति करने का उपदेश।
पदार्थ
(वसोः) श्रेष्ठ गुण की (याः धाराः) जो धाराएँ (मधुना) विज्ञान [मधुविद्या] से (प्रपीनाः) बढ़ी हुई और (घृतेन) सार [तत्त्वज्ञान] से (मिश्राः) मिली हुई (अमृतस्य) अमृत [मोक्षसुख] की (नाभयः) नाभिएँ [मध्यभाग] हैं। (ताः सर्वाः) उन सब [धाराओं] को (स्वर्गः) सुख पहुँचानेवाला [पुरुष] (अव रुन्धे) चौकसी से रख लेता है, और [उन को] (षष्ठ्याम्) साठ [अनेक] (शरत्सु) बरसों में (निधिपाः) निधियों का रक्षक [मनुष्य] (अभि इच्छात्) खोजे ॥४१॥
भावार्थ
श्रेष्ठ गुण संसार में ईश्वर के विज्ञान और सृष्टि के तत्त्वज्ञान से मनुष्य को बड़े प्रत्यक्ष और बड़े अभ्यास से प्राप्त होते हैं ॥४१॥ इस मन्त्र का चौथा पाद ऊपर मन्त्र ३४ में आ चुका है ॥
टिप्पणी
४१−(वसोः) श्रेष्ठगुणस्य (याः) (धाराः) प्रवाहाः (मधुना) विज्ञानेन। मधुविद्यया (प्रपीनाः) प्रवृद्धाः (घृतेन) घृ सेके दीप्तौ−क्त। सारेण। तत्त्वज्ञानेन (मिश्राः) संयुक्ताः (अमृतस्य) मोक्षसुखस्य (नाभयः) मध्यभागाः (सर्वाः) (ताः) धाराः (अव रुन्धे) सावधानतया रक्षति (स्वर्गः) सुखप्रापकः पुरुषः। अन्यत् पूर्ववत्−म० ३४ ॥
विषय
ऐश्वर्य, माधुर्य, ज्ञानरुचिता, नीरोगता
पदार्थ
१. (वसोः याः धारा:) = निवास के लिए आवश्यक धन की जो धाराएँ हैं, जोकि मधुना (प्रपीना:) = माधुर्य से-परस्पर मधुर व्यवहार से-अतिशयेन पुष्ट हुई-हुई हैं, (घृतेन मिश्रा:) = ज्ञानदीप्ति से युक्त हैं, तथा (अमृतस्य नाभयः) = नीरोगता की नाभि [केन्द्र] है, (ताः सर्वा:) = उन सब वसुधाराओं को (स्वर्गः अवरुन्धे) = स्वर्ग अपने में रोकता है, अर्थात् 'जहाँ ऐश्वर्य है-मधुर व्यवहार है-ज्ञान की प्रधानता है-नीरोगता का निवास है' वहीं स्वर्ग है। २. इस स्वर्ग को (अभीच्छात्) = वही व्यक्ति प्राप्त करने की कामना करे जोकि (षष्टयां शरत्सु निधिपा:) = जीवन के प्रथम साठ वर्षों में वीर्यरूप निधि का रक्षण करनेवाला है। प्रथम वयस् में यदि हम संयमी जीवन बिताते हुए इस अद्भुत वीर्य-निधि का रक्षण करते हैं तो हमारा जीवन अवश्य स्वर्गमय बनता है। उस सशक्त जीवन में हम पुरुषार्थ से आवश्यक धन का अर्जन करने में समर्थ होते हैं, हमारे व्यवहार में माधुर्य बना रहता है, हमारी प्रवृत्ति ज्ञान-प्रधान होती है और शरीर सदा नीरोग होता है। यही तो स्वर्ग है।
भावार्थ
हम जीवन के प्रथम साठ वर्षों में संयम द्वारा वीर्यरक्षण से जीवन को स्वर्ग बनाएँ। 'ऐश्वर्यशाली, मधुर, ज्ञानरुचि व नीरोग' बनकर सुखी हों।
भाषार्थ
(याः) जो (वसोः धाराः) दूध की धाराएं, (मधुना प्रपीनाः) मधु द्वारा अभिवर्धित, (घृतेन मिश्राः) घृतमिश्रित हैं, वे (अमृतस्य नाभयः) शीघ्र न मरने के केन्द्ररूप है। (स्वर्गः) स्वर्गीय जीवनरूप हैं (ताः सर्वाः) सब धाराएं। (षष्ट्यां शरत्सु) ६० वर्षों की आयु में (निधिपाः) गृह्यसम्पत्ति का रक्षक (अभि इच्छात्) अगले आश्रम की इच्छा करें।
टिप्पणी
[दूध में शहद और घृत मिला कर सेवन करने से आयु बढ़ती है। गृहस्थरूपी स्वर्ग में ये सब वस्तुएँ प्रभूतमात्रा में होनी चाहियें। इन सुखों की प्राप्ति के होते हुए भी गृहस्थी को, ६० बर्षों की आयु हो जाने पर, आध्यात्मिक सुख की प्राप्ति के लिये अगले आश्रमों में जाने की इच्छा करनी चाहिये। गृहस्थ जीवन स्वर्गरूप है, इस निमित्त देखो (अथर्व० ४।३४।१-८) इस सूक्त में दर्शाया है कि गृहस्थ में मधु, घृत, क्षीर अर्थात् दूध, दधि, उदक से भरे कुम्भ होने चाहियें। ऐसे गृहस्थ को स्वर्ग कहा है (मन्त्र ५, ७)। यदि सब प्रकार की सुखसामग्री प्राप्त हो तो गृहस्थ भी स्वर्ग हैं, आधिभौतिक स्वर्ग है, परन्तु वानप्रस्थ आदि का निरीह जीवन आध्यात्मिक स्वर्ग है]।
विषय
स्वर्गौदन की साधना या गृहस्थ धर्म का उपदेश।
भावार्थ
(याः) जो (मधुना) मधुर आनन्द से (प्रपीनाः) खूब बढ़ी हुई, आनन्द प्रमोद से भरी, (घृतेन मिश्राः) घृत = पुष्टिकारक घी दूध आदि स्नेहवान् पदार्थों से युक्त (अमृतस्य नाभयः) अमृत, परमानन्द या शत वर्ष के दीर्घ जीवन को उत्पन्न करने वालीं (वसोः) ‘वसु’, देह में वास करने वाले आत्मा की (धाराः) धाराएं, धारणा शक्तियां एवं जीवन की सुख की धाराएं हैं (ताः) उनको (स्वर्गः) स्वर्गमय लोक (अव रुन्धे) अपने भीतर सुरक्षित रखता है। ऐसे स्वर्ग को (निधिपाः) वीर्य रूप निधि—अक्षय सुखों के खजाने की रक्षा करने वाला ब्रह्मचारी गृहस्थ या इस पृथ्वी का पालक राजा स्वयं (षष्ट्यां शरत्सु) साठ वर्ष की अवस्था में (अभि इच्छात्) प्राप्त करता है।
टिप्पणी
‘मधुना सनक्ताः’, (द्वि०) ‘अमृतस्य धानपः’ इति पैप्प० सं०।
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
यम ऋषिः। मन्त्रोक्तः स्वर्गौदनोऽग्निर्देवता। १, ४२, ४३, ४७ भुरिजः, ८, १२, २१, २२, २४ जगत्यः १३ [१] त्रिष्टुप, १७ स्वराट्, आर्षी पंक्तिः, ३.४ विराड्गर्भा पंक्तिः, ३९ अनुष्टुद्गर्भा पंक्तिः, ४४ परावृहती, ५५-६० व्यवसाना सप्तपदाऽतिजागतशाकरातिशाकरधार्त्यगर्भातिधृतयः [ ५५, ५७-६० कृतयः, ५६ विराट् कृतिः ]। षष्ट्यृचं सूक्तम्॥
इंग्लिश (4)
Subject
Svarga and Odana
Meaning
All those streams of wealth and joy on earth in Grhastha which are replete with honey and mixed with ghrta are centre-holds of nectar and immortality. Let the earthly paradise of the home hold in all these, and let the master protector and maintainer of the home wish and strive for these through sixty years.
Translation
What streams of good, fattened with honey, mixed with ghee, navels of immortality — all those doth the heaven-goer take possession of; in sixty autumns may he seek. unto the treasure-keepers.
Translation
Swarga the state of great happiness retains all those streams of prosperity which are swollen with honey and mingled, with ghee and are the source of immortality. The protector of desires this (Svarga) in sixty autumns.
Translation
The soul forces, replete with joy, blent with knowledge, are the sources of full span of life for a hundred years. A happiness-bestowing person retains them all. A Brahmchari, the guardian of the treasure of semen, acquires them at the age of sixty .
संस्कृत (1)
सूचना
कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।
टिप्पणीः
४१−(वसोः) श्रेष्ठगुणस्य (याः) (धाराः) प्रवाहाः (मधुना) विज्ञानेन। मधुविद्यया (प्रपीनाः) प्रवृद्धाः (घृतेन) घृ सेके दीप्तौ−क्त। सारेण। तत्त्वज्ञानेन (मिश्राः) संयुक्ताः (अमृतस्य) मोक्षसुखस्य (नाभयः) मध्यभागाः (सर्वाः) (ताः) धाराः (अव रुन्धे) सावधानतया रक्षति (स्वर्गः) सुखप्रापकः पुरुषः। अन्यत् पूर्ववत्−म० ३४ ॥
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