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  • अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 5/ मन्त्र 56
    ऋषिः - अथर्वाचार्यः देवता - ब्रह्मगवी छन्दः - आसुरी गायत्री सूक्तम् - ब्रह्मगवी सूक्त
    21

    आ द॑त्से जिन॒तां वर्च॑ इ॒ष्टं पू॒र्तं चा॒शिषः॑ ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    आ । द॒त्से॒ । जि॒न॒ताम् । वर्च॑: । इ॒ष्टम् । पू॒र्तम् । च॒ । आ॒ऽशिष॑: ॥१०.१०॥


    स्वर रहित मन्त्र

    आ दत्से जिनतां वर्च इष्टं पूर्तं चाशिषः ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    आ । दत्से । जिनताम् । वर्च: । इष्टम् । पूर्तम् । च । आऽशिष: ॥१०.१०॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 12; सूक्त » 5; मन्त्र » 56
    Acknowledgment

    हिन्दी (4)

    विषय

    वेदवाणी रोकने के दोषों का उपदेश।

    पदार्थ

    [हे वेदवाणी !] (जिनताम्) हानिकारकों का (वर्चः) तेज, (इष्टम्) यज्ञ [अग्निहोत्र, वेदाध्ययन, अतिथिसत्कार आदि] (पूर्तम्) पूर्णता [सर्वोपकारी कर्म कूप, तड़ाग, आराम, वाटिका आदि] (च) और (आशिषः) इच्छाओं को (आ दत्से) तू हर लेती है ॥५६॥

    भावार्थ

    जो मनुष्य वैदिक रीति से विरुद्ध चलकर अग्निहोत्र, वेदध्ययन आदि छल से करना चाहता है, उससे उसकी इष्टसिद्धि नहीं होती ॥५६॥

    टिप्पणी

    ५६−(आ दत्से) हरसि (जिनताम्) ज्या वयोहानौ−शतृ। हानिकारकाणाम् (वर्चः) तेजः (इष्टम्) म० १०। अग्निहोत्रवेदाध्ययनातिथ्यादिकर्म (पूर्तम्) म० १०। पूर्णताम्। सर्वोपकारिकूपतडागारामवाटिकादिकर्म (च) (आशिषः) आङः शासु इच्छायाम्−क्विप्। क्विप्प्रत्यये तस्यापि भवतीति वक्तव्यम्। वा० पा० ६।४।३४। इति इत्वम्। हितप्रार्थनाः ॥

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    विषय

    छेदन.....हिंसा.....आशरविनाश

    पदार्थ

    १. हे (आंगिरसि) = विद्वान् ब्राह्मण की शक्तिरूप वेदवाणि! तू (ब्रह्माज्यम्) = ज्ञान के ध्वंसक दुष्ट पुरुष को (छिन्धि) = काट डाल, (आच्छिन्धि) = सब ओर से काट डाल, (प्रच्छिन्धि) = अच्छी प्रकार काट डाल। (क्षापय क्षापय) = उजाड़ डाल और उजाड़ ही डाल। २. हे आंगिरसि! तू (हि) = निश्चय से (वैश्वदेवी उच्यसे) = सब दिव्य गुणोंवाली व सब शत्रुओं की विजिगीषावाली [दिव विजिगीषायाम्] कही जाती है। (आवृता) = आवृत कर दी गई-प्रतिबन्ध लगा दी गई तू (कृत्या) = हिंसा हो जाती है, (कूल्वजम्) = [कु+उल दाहे+ज] इस पृथिवी पर दाह को उत्पन्न करनेवाली होती है। तू ओषन्ती जलाती हुई, और (सम् ओषन्ती) = खूब ही जलाती हुई (ब्रह्मणो वज्र:) = इस ब्रह्मज्य के लिए ब्रह्म [परमात्मा] का वज्र ही हो जाती है। ३. (क्षुरपवि:) = छुरे की नोक बनकर (मृत्युः भूत्वा विधाव त्वम्) = मौत बनकर तू ब्रह्मज्य पर आक्रमण कर। इन (जिनताम्) = ब्रह्मज्यों के (वर्च:) = तेज को (इष्टम्) = यज्ञों को (पूर्तम्) = वापी, कूप, तड़ागादि के निर्माण से उत्पन्न फलों को (आशिषः च) = और उन ब्रह्मज्यों की सब कामनाओं को तू (आदत्से) = छीन लेती है-विनष्ट कर डालती है।

    भावार्थ

    नष्ट की गई ब्रह्मगवी इन ब्रह्मज्यों को ही छिन कर डालती है। वैश्वदेवी होती हुई भी यह ब्रह्मज्यों के लिए हिंसा प्रमाणित होती है। यह उनके सब पुण्यफलों को छीन लेती |

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    भाषार्थ

    [हे गो-जाति !] (आ दत्से) तू छीन लेती है (जिनताम्) तेरे जीवन को हानि पहुंचाने वालों के (वर्चः) तेज को, (इष्टम्) उन के यज्ञ के फलों को, (पूर्तम्) सामाजिक परोपकारों के यश को, (आशिषः) तथा इच्छाओं को।

    टिप्पणी

    ["जिनताम्" पद में बहुवचन है, इस से प्रतीत होता है कि गोघातक नाना व्यक्ति हैं जिन के साथ कि गोरक्षकों का युद्ध है। आदत्से= छीन लेती है या हरण कर लेती है।]

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    विषय

    ब्रह्मगवी का वर्णन।

    भावार्थ

    हे ब्रह्मगवि ! तू (जिनताम्) हत्याकारियों के (वर्चः) तेज, (इष्टम्) यज्ञ याग के फल और (पूर्तम्) अन्य कूप, तड़ाग धर्मशाला आदि परोपकार के कार्यों के फल और (आशिषः) अन्य उनको समस्त शुभ आशाओं और कामनाओं को तू (आदत्से) स्वयं लेकर विनाश कर डालती है।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    ऋषिर्देवते च पूर्वोक्ते। ४७, ४९, ५१-५३, ५७-५९, ६१ प्राजापत्यानुष्टुभः, ४८ आर्षी अनुष्टुप्, ५० साम्नी बृहती, ५४, ५५ प्राजापत्या उष्णिक्, ५६ आसुरी गायत्री, ६० गायत्री। पञ्चदशर्चं षष्टं पर्यायसूक्तम्॥

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    इंग्लिश (4)

    Subject

    Divine Cow

    Meaning

    You take off the splendour, cherished performance, charities for fulfilment and all their tally of good wishes from the violators of the Brahmama’s divine cow.

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    Translation

    Thou takest to thyself the honor of the scathers, their sacrifice and bestowal, their expectations.

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    Translation

    This device seizes out the strength out the strength, meritorious works, fulfillments and scopes and expectations of future of those who are tyrants.

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    Translation

    Thou snatehest the tyrants’ strength, the fruit of their virtuous deeds and philanthropic acts,and their noble ambitions.

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    संस्कृत (1)

    सूचना

    कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।

    टिप्पणीः

    ५६−(आ दत्से) हरसि (जिनताम्) ज्या वयोहानौ−शतृ। हानिकारकाणाम् (वर्चः) तेजः (इष्टम्) म० १०। अग्निहोत्रवेदाध्ययनातिथ्यादिकर्म (पूर्तम्) म० १०। पूर्णताम्। सर्वोपकारिकूपतडागारामवाटिकादिकर्म (च) (आशिषः) आङः शासु इच्छायाम्−क्विप्। क्विप्प्रत्यये तस्यापि भवतीति वक्तव्यम्। वा० पा० ६।४।३४। इति इत्वम्। हितप्रार्थनाः ॥

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