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  • अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 5/ मन्त्र 65
    ऋषिः - अथर्वाचार्यः देवता - ब्रह्मगवी छन्दः - गायत्री सूक्तम् - ब्रह्मगवी सूक्त
    42

    ए॒वा त्वं दे॑व्यघ्न्ये ब्रह्म॒ज्यस्य॑ कृ॒ताग॑सो देवपी॒योर॑रा॒धसः॑ ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    ए॒व । त्वम् । दे॒वि॒ । अ॒घ्न्ये॒ । ब्र॒ह्म॒ऽज्यस्य॑ । कृ॒तऽआ॑गस: । दे॒व॒ऽपी॒यो: । अ॒रा॒धस॑: ॥११.४॥


    स्वर रहित मन्त्र

    एवा त्वं देव्यघ्न्ये ब्रह्मज्यस्य कृतागसो देवपीयोरराधसः ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    एव । त्वम् । देवि । अघ्न्ये । ब्रह्मऽज्यस्य । कृतऽआगस: । देवऽपीयो: । अराधस: ॥११.४॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 12; सूक्त » 5; मन्त्र » 65
    Acknowledgment

    हिन्दी (4)

    विषय

    वेदवाणी रोकने के दोषों का उपदेश।

    पदार्थ

    (देवि) हे देवी ! [उत्तम गुणवाली], (अघ्न्ये) हे अवध्य ! [न मारने योग्य, प्रबल वेदवाणी] (त्वम्) तू (एव) इसी प्रकार (ब्रह्मज्यस्य) ब्रह्मचारियों के हानिकारक, (कृतागसः) अपराध करनेवाले, (देवपीयोः) विद्वानों के सतानेवाले, (अराधसः) अदानशील पुरुष के ॥६५॥

    भावार्थ

    वेदानुयायी धर्मात्मा राजा वेदविरोधी दुष्टाचारियों को प्रचण्ड दण्ड देवे ॥६५-६७॥ मन्त्र ६५ का मिलान मन्त्र ६० से करो ॥

    टिप्पणी

    ६५-६७−(एव) अनेन प्रकारेण (त्वम्) (देवि) म० ६३ (अघ्न्ये) म० ६३। अन्यद् गतम्−म० ६०। (वज्रेण) (शतपर्वणा) बहुग्रन्थिना (तीक्ष्णेन) तीव्रेण (क्षुरभृष्टिना) भ्रस्ज पाके, यद्वा भृशु अधःपतने−क्तिन्। क्षुरवत्तीक्ष्णधारेण (प्र प्र) अतिशयेन (स्कन्धान्) शरीरावयवविशेषान् (शिरः) मस्तकं (जहि) नाशय ॥

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    विषय

    व्रशचन....प्रव्रशचन....संव्रशचन

    पदार्थ

    १. हे (देवि) = शत्रुओं को पराजित करनेवाली (अघ्न्ये) = अहन्तव्ये वेदवाणि! तू (ब्रह्मज्यम्) = इस ब्राह्मणों के हिंसक को-ज्ञान- विनाशक को (वृश्च) = काट डाल, (प्रवृश्च) = खूब ही काट डाल, संवृश्च सम्यक् काट डाल दह इसे जला दे, प्रदह प्रकर्षेण दग्ध कर दे और संदह सम्यक् दग्ध कर दे। (आमूलात् अनुसंदह) = जड़ तक जला डाल। २ यथा जिससे यह (ब्रह्मज्य यमसादनात्) = [अयं वै यमः याऽयं पवते] इस वायुलोक से (परावतः) = सुदूर (पापलोकान्) = पापियों को प्राप्त होनेवाले घोर लोकों को (अयात्) = जाए। मरकर यह ब्रह्मज्य वायु में विचरता हुआ पापियों को प्राप्त होनेवाले लोकों को (असुर्य लोकों को जोकि घोर अन्धकार से आवृत हैं) प्राप्त होता है। २. एवा इसप्रकार हे (देवि अघ्न्ये) = दिव्यगुणसम्पन्न अहन्तव्ये वेदवाणि! (त्वम्) = तू इस (ब्रह्मज्यस्य) = ब्रह्मघात करनेवाले दुष्ट के (स्कन्धान्) = कन्धों को (शतपर्वणा वज्रेण) = सौ पर्वोंवाले- नोकों, दन्दानोंवाले वज्र से (प्रजहि) = नष्ट कर डाल । (तीक्ष्णेन) = बड़े तीक्ष्ण (क्षुरभृष्टना) = (भृष्टि Frying) भून डालनेवाले छुरे से शिरः प्र ( जहि ) सिर को काट डाल ।

    भावार्थ

    ब्रह्मज्य का इस हिंसित वेदवाणी द्वारा ही व्रश्चन व दहन कर दिया जाता है।

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    भाषार्थ

    (एवा) इस प्रकार (अघ्न्ये देवी) हे अवध्य गौ देवी ! (त्वम्) तू (ब्रह्मज्यस्य) ब्रह्मज्ञ और वेदज्ञ ब्राह्मण के जीवन को हानि पहुंचाने वाले, (कृतागसः) पापी, (देवपीयोः) देवहिंसक, (अराधसः) आराधनाहीन व्यक्ति के (६५),

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    विषय

    ब्रह्मगवी का वर्णन।

    भावार्थ

    हे (देवि अघ्न्ये) देवि अघ्न्ये ! ब्रह्मगवि ! (यथा) जिस तरह से हो वह (यमसदनात्) यमराज परमेश्वर के दण्डस्थान से (परावतः) परले (पापलोकान्) पाप के फलस्वरूप घोर लोकों को (अयात्) चला जावे (एवा) इस प्रकार तू (कृतागसः) पाप-कारी (देवपीयोः) देव, विद्वानों के शत्रु (अराधसः) अनुदार, घोर क्षुद्र (ब्रह्मयस्य) ब्रह्मघाती पुरुष के (शिरः) शिर और (स्कन्धान्) कन्धों को (शतपर्वणा) सौ पर्व वाले (क्षुरभृष्टिना) छुरे के धार से सम्पन्न (तीक्ष्णेन) तीखे तेज़ (वज्रेण) वज्र से (प्र जहि) काट डाल।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    ऋषिर्देवते च पूर्वोक्ते। ४७, ४९, ५१-५३, ५७-५९, ६१ प्राजापत्यानुष्टुभः, ४८ आर्षी अनुष्टुप्, ५० साम्नी बृहती, ५४, ५५ प्राजापत्या उष्णिक्, ५६ आसुरी गायत्री, ६० गायत्री। पञ्चदशर्चं षष्टं पर्यायसूक्तम्॥

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    इंग्लिश (4)

    Subject

    Divine Cow

    Meaning

    Thus, O Inviolable Divine Cow, deal with the re viler of divine law, tormentor of Brahmana, perpetrator of sin, hater of divinities and the flouter of piety and freedom.

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    Translation

    So do thou, O divine inviolable one, of the Brahman-scather that has committed offense, of the god-reviler, the ungenerous.

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    Translation

    So let this powerful unkillable cow do for the man who is Brahman’s oppressor offender and sacrilegious to Devas and withholder of gift .

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    Translation

    So, O inviolable Vedic knowledge, do thou from him, the sages’ tyrant, criminal, blasphemer of the learned niggard

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    संस्कृत (1)

    सूचना

    कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।

    टिप्पणीः

    ६५-६७−(एव) अनेन प्रकारेण (त्वम्) (देवि) म० ६३ (अघ्न्ये) म० ६३। अन्यद् गतम्−म० ६०। (वज्रेण) (शतपर्वणा) बहुग्रन्थिना (तीक्ष्णेन) तीव्रेण (क्षुरभृष्टिना) भ्रस्ज पाके, यद्वा भृशु अधःपतने−क्तिन्। क्षुरवत्तीक्ष्णधारेण (प्र प्र) अतिशयेन (स्कन्धान्) शरीरावयवविशेषान् (शिरः) मस्तकं (जहि) नाशय ॥

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