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अथर्ववेद के काण्ड - 3 के सूक्त 21 के मन्त्र
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  • अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 21/ मन्त्र 10
    ऋषिः - वसिष्ठ देवता - अग्निः छन्दः - अनुष्टुप् सूक्तम् - शान्ति सूक्त
    27

    ये पर्व॑ताः॒ सोम॑पृष्ठा॒ आप॑ उत्तान॒शीव॑रीः। वातः॑ प॒र्जन्य॒ आद॒ग्निस्ते क्र॒व्याद॑मशीशमन् ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    ये । पर्व॑ता: । सोम॑ऽपृष्ठा: । आप॑: । उ॒त्ता॒न॒ऽशीव॑री: । वात॑: । प॒र्जन्य॑: । आत् । अ॒ग्नि: । ते । क्र॒व्य॒ऽअद॑म् । अ॒शी॒श॒म॒न् ॥२१.१०॥


    स्वर रहित मन्त्र

    ये पर्वताः सोमपृष्ठा आप उत्तानशीवरीः। वातः पर्जन्य आदग्निस्ते क्रव्यादमशीशमन् ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    ये । पर्वता: । सोमऽपृष्ठा: । आप: । उत्तानऽशीवरी: । वात: । पर्जन्य: । आत् । अग्नि: । ते । क्रव्यऽअदम् । अशीशमन् ॥२१.१०॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 3; सूक्त » 21; मन्त्र » 10
    Acknowledgment

    हिन्दी (4)

    विषय

    परमेश्वर के गुणों का उपदेश।

    पदार्थ

    (ये) जो (पर्वताः) पहाड़ (सोमपृष्ठाः) सोम [अमृत अर्थात् ओषधि वा जल] को पीठ पर रखनेवाले हैं, [उन्होंने और] (उत्तानशीवरीः वर्यः) ऊपर को मुख करके सोनेवाले [सूर्य की ओर चढ़नेवाले] (आपः) जल, (वातः) पवन, (पर्जन्यः) मेघ, (आत्) और (अग्निः) अग्नि, (ते) उन सबने (क्रव्यादम्) मांसभक्षक [अग्नि रूप दुःख] को (अशीशमन्) शान्त कर दिया है ॥१०॥

    भावार्थ

    मनुष्य प्रयत्न करें कि सोमलता आदि औषध उत्पन्न करनेवाले पर्वत, जल, वायु, मेघ, अग्नि आदि सब पदार्थ शुद्ध रहकर सुखदायक होवें ॥१०॥

    टिप्पणी

    १०−(पर्वताः) पर्व पूर्त्तौ-अतच्। शैलाः। (सोमपृष्ठाः) सोमः, अमृतम् ओषधिर्जलं वा पृष्ठे उपरिभागे येषां ते तथाभूताः। (आपः) जलानि। (उत्तानशीवरीः) उत्+तनु विस्तारे-घञ्। अन्येभ्योऽपि दृश्यन्ते। पा० ३।२।७५। इति शीङः क्वनिप्। वनो र च। पा० ४।१।७। इति ङीब्रेफौ। वा छन्दसि। पा० ६।१।१०६। इति जसि पूर्व सवर्णदीर्घः। ऊर्ध्वमुखशयाः। सूर्याभिमुखवर्त्तमानाः। (वातः) वायुः। (पर्जन्यः)। सेचको मेघः। (आत्) अपि च। (अग्निः) पावकः। (क्रव्यादम्) मांसभक्षकं रोगम्। (अशीशमन्) शमु णिच्, लुङि। शान्तं कृतवन्तः ॥

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    विषय

    कामानि की शान्ति के साधन

    पदार्थ

    १. (ये) = जो (सोमपृष्ठा:) = सोम आदि औषधियों को अपने पृष्ठ पर धारण करनेवाले (पर्वता:) = पर्वत हैं, (ते) = वे (क्रव्यादम्) = इस मांसभक्षक कामाग्नि को (अशीशमन्) = शान्त करते हैं। पर्वतों का शान्त जलवायु तथा पर्वतों की शीतवीर्य सोम आदि लताएँ वीर्य-रक्षण के लिए अनुकूलता उत्पन्न करती हैं। इसप्रकार (उत्तानशीवरी: आप:) = जल उत्तानशयन स्वभाव हैं, अर्थात् सामान्यतः ये शरीर में शक्ति की ऊर्ध्वगति का कारण होते हैं। कटिप्रदेश का जल से स्नान इस कार्य में बड़ा सहायक है। २. (वात:) = वायु, (पर्जन्य:) = बादल (आत्) = और अब (अग्नि) = अग्निहोत्र-ये सब इस कामाग्नि को शान्त करते हैं। वायुसेवन तथा प्राणायाम द्वारा वायु का आराधन तो वीर्य की ऊर्ध्वगति का कारण होता ही है। वृष्टिजल में सान व वृष्टिजल का पान भी वीर्यरक्षण की अनुकूलता को उत्पन्न करता है। अग्निहोत्र आदि करते हुए अग्नि का शरीर के साथ सम्पर्क भी त्वचा की कोमलता को दूर करके वीर्यरक्षण का साधक हो जाता है। वायु, बादल, अग्नि-इन सबके सम्पर्क में कामाग्नि की शान्ति में सहायता मिलती है।

    भावार्थ

    'पर्वतों की शीतवीर्य ओषधियों का प्रयोग, जल से कटि-सान, वायु-सेवन, वृष्टिजल में स्नान व उसका पान तथा अग्नि के ताप से त्वचा की कोमलता का निराकरण' ये सब साधन कामाग्नि को शान्त करते हैं।

    विशेष

    कामाग्नि की शान्ति से वर्चस् को प्राप्त करनेवाला 'वसिष्ठ' ही अगले सूक्त का भी ऋषि है -

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    भाषार्थ

    (सोमपृष्ठाः) सोमौषधि जिनकी पीठ पर विद्यमान है, ऐसे (ये) जो (पर्वता:) पर्वत हैं, तथा (उत्तानशीवरी:) ऊपर-ताने अर्थात् विस्तृत वायु-मण्डल में शयन करनेवाले जो (आपः) जल हैं; (वातः) प्रवाही वायु (पर्जन्य:) मेघ, (आत्) तदनन्तर (अग्निः) यज्ञियाग्नि है (ते) उन्होंने (क्रव्यादम्) कच्चे मांस का भक्षण करनेवाली शवाग्नि अर्थात् श्मशानाग्नि को (अशीशमन्) शान्त कर दिया है, प्रभावरहित कर दिया है।

    टिप्पणी

    [सोम है वीरुघों का अधिपति यथा "सोमो वीरुधामधिपतिः।" (अथर्व० ५।२४।७)। आप: हैं ऊपर अर्थात् वायुमण्डल में शयन किये हुए जल, जिनकी जागृति वर्षाकाल में होती है तथा वायु आदि, क्रव्यादग्नि को शान्त कर देते हैं। मनुष्य की आयु १०० वर्षों की कही है। १०० वर्षों से पूर्व मृत्यु अन्नादि के दोषादि द्वारा होती है। इस मृत्यु में शरीर कच्चे मांस-वाला होता है, पूर्णतया परिपक्व मांसवाला नहीं होता, यह "क्रव्य" होता है, इसे भक्षण करनेवाली श्मशानाग्नि क्रव्यादग्नि है। क्रव्यम्= कृवि हिंसा- करणयोश्च। सोम आदि के सेवन में क्रव्यादग्नि शान्त हो जाती है।]

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    विषय

    लोकोपकारक अग्नियों का वर्णन ।

    भावार्थ

    जन-मारक महाव्याधि और अकालिक मृत्यु के विनाश करने के उपायों को संक्षेप से दिखाते हैं—(ये पर्वताः) जो पर्वत (सोम-पृष्ठाः) सोम जैसी बहुवीर्य ओषधियों को अपनी पृष्ठ पर उत्पन्न करते हैं और जो (आपः) जल (उत्तान-शीवरीः) सर्वदा सूर्य, चन्द्र और नक्षत्र, इन ज्योतियों में खुले रहते हैं वे हंसोदक अथवा ‘उत्तान’= ऊंचें गण्डशैलों में स्थित हैं जिनमें रोगनाशक गुण हैं और (वातः) प्रचण्ड वायु जो अपने झकोरों से ही हैज़ आदि रोगों को उड़ा ले जाते है और (पर्जन्यः) मेघ जिसके बरसने से दुष्काल दूर हो जाता है, और (अग्निः) अग्नि जिससे यज्ञ और प्रज्वालन से गृह शुद्ध और नीरोग हो जाते हैं (ते) वे उपाय हैं जो (क्रव्य-अदम्) क्रव्य= मानव के अपरिपक्व शरीरों को खाने वाले मृत्यु एवं श्मशानाग्नि को (अशीशमन्) शान्त करते हैं ।

    टिप्पणी

    (च०) ‘अशीशमम्’ इति क्वचित् ।

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    वसिष्ठ ऋषिः। अग्निर्देवता। १ पुरोनुष्टुप्। २, ३,८ भुरिजः। ५ जगती। ६ उपरिष्टाद्-विराड् बृहती। ७ विराड्गर्भा। ९ निचृदनुष्धुप्। १० अनुष्टुप्। दशर्चं सूक्तम्।

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    इंग्लिश (4)

    Subject

    Divine Energy, Kama Fire and Peace

    Meaning

    Soma bearing mountains, holy waters, air, wind and cloud, all places exposed to the sun, they counter and extinguish the cancerous, consumptive, carnivorous fire.

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    Translation

    The mountains, on whose back the Soma (medicinal herb) grows, and the waters, that sleep calm and quiet, the storm, the rain-cloud, and tbe fire itself - these have stilled the flesh-devouring fire.

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    Translation

    The mountains which are covered with herbaceous plants, the waters ever exposed to sun and air; cloud and fire normalize the fire which consumes flesh creating the diseases.

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    Translation

    This mountain where the herbs grow, the waters lying clam and still exposed to the sun and Moon. Pure air that removes discase, rainy clouds, sacrificial fire that purifies homes; all these appease the flesh-consuming malady of Death.

    Footnote

    The medicinal herbs on the mountains, pure water, pure air, clouds, and yajnas fire ‘avert’ death and conduce to longevity.

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    संस्कृत (1)

    सूचना

    कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।

    टिप्पणीः

    १०−(पर्वताः) पर्व पूर्त्तौ-अतच्। शैलाः। (सोमपृष्ठाः) सोमः, अमृतम् ओषधिर्जलं वा पृष्ठे उपरिभागे येषां ते तथाभूताः। (आपः) जलानि। (उत्तानशीवरीः) उत्+तनु विस्तारे-घञ्। अन्येभ्योऽपि दृश्यन्ते। पा० ३।२।७५। इति शीङः क्वनिप्। वनो र च। पा० ४।१।७। इति ङीब्रेफौ। वा छन्दसि। पा० ६।१।१०६। इति जसि पूर्व सवर्णदीर्घः। ऊर्ध्वमुखशयाः। सूर्याभिमुखवर्त्तमानाः। (वातः) वायुः। (पर्जन्यः)। सेचको मेघः। (आत्) अपि च। (अग्निः) पावकः। (क्रव्यादम्) मांसभक्षकं रोगम्। (अशीशमन्) शमु णिच्, लुङि। शान्तं कृतवन्तः ॥

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    बंगाली (2)

    भाषार्थ

    (সোমপৃষ্ঠাঃ) সোমৌষধি যার পিঠের ওপর বিদ্যমান, এমন (যে) যে (পর্বতাঃ) পর্বত আছে, এবং (উত্তানশীবরীঃ) বিস্তৃত বায়ুমণ্ডলে শয়নকারী যে (আপঃ) জল আছে; (বাতঃ) প্রবাহী বায়ু, (পর্জন্যঃ) মেঘ, (আৎ) তদনন্তর (অগ্নিঃ) যজ্ঞাগ্নি আছে (তো) সেগুলো (ক্রব্যাদম্) কাঁচা মাংসের ভক্ষক শবাগ্নি অর্থাৎ শ্মশাগ্নিকে (অশীশমন্) শান্ত করে দিয়েছে, প্রভাবরহিত করে দিয়েছে।

    टिप्पणी

    [সোম হলো বিরুৎ-এর অধিপতি যথা “সোমো বীরুধামধিপতিঃ।" (অথর্ব০ ৫।২৪।৭) আপঃ হলো উপরে অর্থাৎ বায়ুমণ্ডলে শায়িত জল, যার জাগৃতি বর্ষাকালে হয় এবং বায়ু আদি, ক্রব্যাদগ্নিকে শান্ত করে দেয়। মনুষ্যের আয়ু ১০০ বছরের বলা হয়েছে। ১০০ বছরের পূর্বে মৃত্যু অন্নাদির দোষাদি দ্বারা হয়ে থাকে। এই মৃত্যুতে শরীরও কাঁচা মাংসযুক্ত হয়, পূর্ণরূপে পরিপক্ব মাংসের হয় না, ইহা "ক্রব্য" হয়, এর ভক্ষণকারী হলো শ্মশানাগ্নি ক্রব্যাদগ্নি। ক্রব্যম্= কৃবি হিংসাকরণয়োশ্চ। সোম আদির সেবনে ক্রব্যাদগ্নি শান্ত হয়ে যায়।]

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    मन्त्र विषय

    পরমেশ্বরস্য গুণোপদেশঃ

    भाषार्थ

    (যে) যে (পর্বতাঃ) পর্বত/পাহাড় (সোমপৃষ্ঠাঃ) সোম [অমৃত অর্থাৎ ঔষধি বা জল] কে পীঠের ওপর/পৃষ্ঠদেশে রাখে/ধারণ করে, [তা এবং] (উত্তানশীবরীঃ বর্যঃ) উপরের দিকে মুখ করে শয়নকারী/শায়িত [সূর্যের দিকে আরোহণ কারী] (আপঃ) জল, (বাতঃ) পবন, (পর্জন্যঃ) মেঘ, (আৎ) এবং (অগ্নিঃ) অগ্নি, (তে) এই সকল (ক্রব্যাদম্) মাংসভক্ষক [অগ্নি রূপ দুঃখ] কে (অশীশমন্) শান্ত করে দিয়েছে ॥১০॥

    भावार्थ

    মনুষ্য প্রচেষ্টা করুক যাতে সোমলতা আদি ঔষধ উৎপাদক পর্বত, জল, বায়ু, মেঘ, অগ্নি আদি সকল পদার্থ শুদ্ধ থেকে সুখদায়ক হোক ॥১০॥

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