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अथर्ववेद के काण्ड - 3 के सूक्त 21 के मन्त्र
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  • अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 21/ मन्त्र 5
    ऋषिः - वसिष्ठः देवता - अग्निः छन्दः - जगती सूक्तम् - शान्ति सूक्त
    14

    यं त्वा॒ होता॑रं॒ मन॑सा॒भि सं॑वि॒दुस्त्रयो॑दश भौव॒नाः पञ्च॑ मान॒वाः। व॑र्चो॒धसे॑ य॒शसे॑ सू॒नृता॑वते॒ तेभ्यो॑ अ॒ग्निभ्यो॑ हु॒तम॑स्त्वे॒तत् ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    यम् । त्चा॒ । होता॑रम् । मन॑सा । अ॒भि । स॒म्ऽवि॒दु: । त्रय॑:ऽदश । भौ॒व॒ना: । पञ्च॑ । मा॒न॒वा: । व॒र्च॒:ऽधसे॑ । य॒शसे॑ । सू॒नृता॑ऽवते । तेभ्य॑: । अ॒ग्निऽभ्य॑: । हु॒तम् । अ॒स्तु॒ । ए॒तत् ॥२१.५॥


    स्वर रहित मन्त्र

    यं त्वा होतारं मनसाभि संविदुस्त्रयोदश भौवनाः पञ्च मानवाः। वर्चोधसे यशसे सूनृतावते तेभ्यो अग्निभ्यो हुतमस्त्वेतत् ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    यम् । त्चा । होतारम् । मनसा । अभि । सम्ऽविदु: । त्रय:ऽदश । भौवना: । पञ्च । मानवा: । वर्च:ऽधसे । यशसे । सूनृताऽवते । तेभ्य: । अग्निऽभ्य: । हुतम् । अस्तु । एतत् ॥२१.५॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 3; सूक्त » 21; मन्त्र » 5
    Acknowledgment

    हिन्दी (4)

    विषय

    परमेश्वर के गुणों का उपदेश।

    पदार्थ

    (त्रयोदश) तेरह [दो कान, दो नथनें, दो आँखें और एक मुख यह सात शिर के, और दो हाथ, दो पद, एक उपस्थेन्द्रिय, और एक गुदास्थान, यह छः शिर के नीचे के] (भौवनाः) भुवनों से संबन्धवाले प्राणी, और (पञ्च) पाँच [पृथिवी, जल, तेज, वायु और आकाश, इन पाँच तत्त्व] से संबन्धवाले (मानवाः) मनुष्य (मनसा) मनन शक्ति से (वर्चोधसे) तेज धारण करानेवाले और (सूनृतावते) प्रिय सत्य वाणीवाले (यशसे) यश के लिये (यम्) जिस (त्वा) तुझ [अग्नि] को (होतारम्) दानी (अभि) सब प्रकार (संविदुः) ठीक-ठीक जानते हैं, (तेभ्यः) उन (अग्निभ्यः) अग्नियों [ईश्वरतेजों] को (एतत्) यह (हुतम्) दान [आत्मसमर्पण] (अस्तु) होवे ॥५॥

    भावार्थ

    सब शरीरधारी उस परमपिता की महिमा विचारपूर्वक गाकर तेजस्वी, सत्यवादी और यशस्वी होते हैं, उसको यह हमारा नमस्कार है ॥५॥ ‘पञ्च मानवाः’ शब्द ‘पञ्चजनाः’ शब्द का पर्यायवाची है, जिसका अर्थ “मनुष्य” है−निघ० २।३। उसकी व्याख्या, निरु० ३।८ में इस प्रकार की है−“पञ्च जनाः” गन्धर्व, पितर, देव, असुर और राक्षस, ऐसा कोई-२ मानते हैं, चारों वर्ण और निषाद पाँचवाँ, यह औपमन्यव ऋषि का मत है निषाद किस लिये, इसमें पाप स्थित है ॥

    टिप्पणी

    ५−(यम्। त्वा) अग्निम्। (होतारम्) दातारम्। मनसा। मननेन। चित्तेन। (अभि) अभितः सर्वतः। (संविदुः) विद ज्ञाने-लट्। सम्यग् विदन्ति जानन्ति। (त्रयोदश) त्रयश्च दश च। सप्त शीर्षण्याः षड् अधोभागस्थाः पाणिपादोपस्थगुदावयवाः। (भौवनाः) भू सत्तायाम्-क्युन्, इति भुवनम्। अ० २।१।३। भुवन्-अण्। भुवनानि भवनानि गृणानि इन्द्रियाणि येषां ते भौवनाः प्राणिनः। (पञ्च, मानवाः) तस्येदम्। पा० ४।३।१२०। इति मनु-अण्। मनुर्मननं येषां ते मानवाः। पञ्च भूतसम्बन्धिनो मनुष्याः। अथवा, पञ्चमानवा एव पञ्च जनाः। पञ्चजनाः, मनुष्यनाम-निघ–० २।३। पञ्चजनाः........ गन्धर्वाः पितरो देवा असुरा रक्षांसीत्येके चत्वारो वर्णा निषादः पञ्चम इत्यौपमन्यवो निषादः कस्मान्निषण्णमस्मिन् पापकमिति नैरुक्ताः-निरु० ३।८। (वर्चोधसे) दधातेरसुन्। तेजसां दात्रे। (यशसे) अशेर्देवने युट् च। उ० ४।१९१। इति अशू व्याप्तौ-असुन्, युडागमश्च, देवनं स्तुतिः। यशःप्राप्तये। (सूनृतावते) अ० ३।१२।२। प्रियसत्यात्मिका वाक् सूनृता, तद्वते। एवंभूताय यशसे। अन्यद् गतम् ॥

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    विषय

    वर्णोधसे, यशसे, सूनृतावते

    पदार्थ

    १. ('भवन्ति यस्मिन् भूतानि इति भुवनः संवत्सरः') = इस व्युत्पत्ति से भुवन का भाव है "संवत्सर'। इस संवत्सर में होनेवाले चैत्र आदि बारह तथा 'संसाहस्पत्य' नामक तेरहवाँ अधिमास-ये मिलकर तेरह भौवन हैं। (त्रयोदस भौवना:) = तेरह-के-तेरह मास (पञ्च मानवा:) = ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, शूद्र तथा निषाद-ये पाँचों मनुष्य (यम्) = जिस (होतरम) = सब-कुछ देनेवाले (त्वा) = आपको (मनसा) = मनन के द्वारा (अभिसंविदुः) = आभिमुख्येन सम्यक् जानते हैं, २. (तेषाम्) = उन (वर्णोधसे) = शक्ति का आधान करनेवाले, यशसे यशस्वी, (सून्तावते) = प्रिय, सत्य वाणीवाले (अग्निभ्यः) = अग्नि नामक प्रभु के लिए (एतत्) = यह (हुतम् अस्तु) = समर्पण हो। लोक में जहाँ 'वर्चस, यश, सून्तावाणी' है वह सब उस प्रभु की विभूति ही है। प्रभु के प्रति अपना अर्पण करते हुए हम भी इन वर्चस, यश च सूनुतावाणी को प्राप्त करते हैं।

    भावार्थ

    मननशील पुरुष उस प्रभु को सदा 'होता' के रूप में जानते हैं। प्रभु ही वर्चस, यश व सूनृतावाणी को प्राप्त कराते हैं। हम इस अग्नि नामक प्रभु के प्रति अपना अर्पण करें।

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    भाषार्थ

    [हे परमेश्वराग्नि!] (यम्, त्वा) जिस तुझको, (होतारम्) दाता तथा अत्तारूप में (भौवनाः) भुवनवासी (त्रयोदश) १३ मास, १ तथा (पञ्च)२ पाँच प्रकार के (मानवाः) मननाभ्यासी मनुष्य, (मनसा) मन या मनन द्वारा (अभि) साक्षात् (संविदः) सम्यक्तया जानते हैं, उस (वर्चोधसे) दीपिथारी के लिए, (यशसे) यशस्वी के लिए, (सुनृतावते) प्रिय तथा सत्य वेद वाणी वाले के लिए, (तेभ्य अग्निभ्य ) उन् सब तेरै आग्नेय स्वरूपों के लिए, (एतत्) यह प्राकृतिक तथा अध्यात्म अर्थात् आत्महत्या (हुतम् अस्तु) आहुति रूप में प्रदत्त हो, समर्पित हो।

    टिप्पणी

    [परमेश्वर अग्निरूप है। यथा "तदेवाग्निस्तदादित्यः" (यजु:० ३२।१)। परमेश्वर के नानाविध आग्नेयस्वरूपों के प्रति प्राकृतिक तथा आत्महविः समर्पित की है। चांद, सूर्य, विद्युत, तथा नक्षत्र तारागण परमेश्वराग्नि के ही नानारूप हैं, "तस्य भासा सर्वमिदं विभाति"] [१. मासों में संविदु: की शक्ति नहीं, मास जड़ हैं। अत: मास का अभिप्राय है मास-निवासिनः, उपचारात्। यथा मञ्चा: क्रोशन्ति=मञ्चस्थाः पुरुषाः क्रोशन्ति। २. पाँच प्रकार के मानव यथा, "पञ्चजना मम होत्रं जुषध्वम्" गन्धर्वाः पितरो देवा असुरा रक्षांसि (निरुक्त ३।२।८)। होत्रम् का अभिप्राय है अग्निहोत्र आदि यज्ञ। पितरः और देवा: के साथ पठित "गन्धर्वाः, असुराः, रक्षांसि" पद भी श्रेष्टार्थवाचक हैं। गन्धर्वा हैं गानविद्याज्ञातारः, असुराः हैं प्रज्ञानवन्तः" असुः प्रज्ञानाम" (निघं० ३।९)। रक्षासि हैं रक्षक। परमेश्वर को भी रक्षस् कहा है, यथा "स एव मृत्युः सोऽमृतं सोभ्वं स रक्षः" (अथर्व० १३।३।२५)। परमेश्वर रक्षस् है, वह सबका रक्षक है। १३ मास हैं, १२ मास संवत्सर के और १ अधिमास यथा "अहोरात्रैर्विमितं त्रिंशदङ्ग त्रयोदशं मासं यो निर्मिमीते" (अथर्व० १३।३।८)। यह चान्द्रमास है। सौरवर्ष के दिन अधिक होते और चान्द्रवर्ष के दिन ३० कम होते हैं। उनकी पूर्ति के लिए १३वॉ अधिमास है। अधिमास=अधिक मास। मानवा:=मननाभ्यासिनः। यह अर्थ यहाँ संगत प्रतीत होता है। यद्यपि अद्भुत है। ऐसा अद्भुत अर्थ भी है "मानुष=मनुष्यहितोऽयमादित्यः" (मा ते राधांसि) मन्त्र ऋ० १।८४।२० पर निरुक्त १३ (१४) ३ (२), खं० ३७ (५०)।]

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    विषय

    लोकोपकारक अग्नियों का वर्णन ।

    भावार्थ

    हे परमात्मन्! (यं होतारं त्वा) सब विश्व को ग्रहण करने हारे एवं प्रलयाग्नि या अपने ही कालाग्नि स्वरूप में आहुतिरूप से सब विश्व को डाल देने हारे तुझको विद्वान् लोग (मनसा) अपनी मनः- शक्ति, मानस योग से (अभि सं विदुः) साक्षात् जानते हैं। (त्रयोदश भौवनाः) तेरह भौवन अर्थात् संवत्सर के अवयव १३ मास और (पञ्च मानवाः) मानव जातिसम्बन्धी वसन्त आदि पांच ऋतुएं, जिस प्रकार अपने में व्यापक संवत्सर के साथ अर्थात् एक रूप होकर तन्मय से हुए रहते हैं उसी प्रकार विश्वकर्मा आदि १४ भौवन सृष्टिकर्ता परमेश्वर की विशेष शक्तियां और पांच मानव अर्थात् शरीरगत प्राणों के समान समष्टि में पांच तत्व, जिसको अपने में व्यापक पाते हैं उस(वर्चोधसे) तेज प्रकाश को धारण करने हारे(यशसे) महान् यशःस्वरूप महामहिम,(सूनृतावते) वेद वाणी के स्वामी प्रभु के लिये (तेभ्यः अग्निभ्यः मम एतं हुतम् अस्तु) और उसकी अग्निरूप अन्य शक्तियों को मेरा यह त्यक्त, आहुत पदार्थ प्राप्त हो ।

    टिप्पणी

    (द्वि०) ‘भुवनाः पञ्च’ इति पैप्प० सं०।

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    वसिष्ठ ऋषिः। अग्निर्देवता। १ पुरोनुष्टुप्। २, ३,८ भुरिजः। ५ जगती। ६ उपरिष्टाद्-विराड् बृहती। ७ विराड्गर्भा। ९ निचृदनुष्धुप्। १० अनुष्टुप्। दशर्चं सूक्तम्।

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    इंग्लिश (4)

    Subject

    Divine Energy, Kama Fire and Peace

    Meaning

    You, whom all thirteen regions of the universe and all five communities of the world realise and recognise as main conductor of the yajna of life, to all these fiery forms of yours, lustrous, honourable, truthful and holy, this oblation in homage for peace.

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    Translation

    To you, whom thirteen kinds of beings and five categories of men consider as the sacrifice in their minds, to the bestower of lusture, to the glory incarnate, and to one of truthful and pleasing speech - to all those fires let this oblation be offered. (trayodaša bhauvanāh = 12 months + 1 extra- month or adhimāsa; pafica mānavāh = 5 seasons = vasanta +. grīsma + varsā + Sarad + winter (hemanta and sisira combined)

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    Translation

    The annihiting fire which thirteen month of the year (12 months and one intercalary month) and five kinds of men (Brahmana, Kshatriya, Vaishya, Shudra and the Avarna fifth) realize with main operation and mind, which is full of splendor, glorious and the cause speech ...... to all those let this oblation be offered.

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    Translation

    O God, Strength-Giver, Glorious, Lord of the Vedas, Whom with their reflective strength, the thirteen physical and five elemental forces, regard as Hotar—priest—may my sacrifice be offered to Thee and all Thy forces.

    Footnote

    Thirteen: Two ears, two noses, two eyes, one mouth, two hands, two feet, penis, and arms. Five: Earth, Water, Fire, Air and Space. Some commentators interpret five as Brahmana, Kshatriya, Vaisha, Shudra and Nishada. Sayana interprets thirteen as months of the year including the Laund month, ‘Five’ has been interpreted by some commentators as seasons.

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    संस्कृत (1)

    सूचना

    कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।

    टिप्पणीः

    ५−(यम्। त्वा) अग्निम्। (होतारम्) दातारम्। मनसा। मननेन। चित्तेन। (अभि) अभितः सर्वतः। (संविदुः) विद ज्ञाने-लट्। सम्यग् विदन्ति जानन्ति। (त्रयोदश) त्रयश्च दश च। सप्त शीर्षण्याः षड् अधोभागस्थाः पाणिपादोपस्थगुदावयवाः। (भौवनाः) भू सत्तायाम्-क्युन्, इति भुवनम्। अ० २।१।३। भुवन्-अण्। भुवनानि भवनानि गृणानि इन्द्रियाणि येषां ते भौवनाः प्राणिनः। (पञ्च, मानवाः) तस्येदम्। पा० ४।३।१२०। इति मनु-अण्। मनुर्मननं येषां ते मानवाः। पञ्च भूतसम्बन्धिनो मनुष्याः। अथवा, पञ्चमानवा एव पञ्च जनाः। पञ्चजनाः, मनुष्यनाम-निघ–० २।३। पञ्चजनाः........ गन्धर्वाः पितरो देवा असुरा रक्षांसीत्येके चत्वारो वर्णा निषादः पञ्चम इत्यौपमन्यवो निषादः कस्मान्निषण्णमस्मिन् पापकमिति नैरुक्ताः-निरु० ३।८। (वर्चोधसे) दधातेरसुन्। तेजसां दात्रे। (यशसे) अशेर्देवने युट् च। उ० ४।१९१। इति अशू व्याप्तौ-असुन्, युडागमश्च, देवनं स्तुतिः। यशःप्राप्तये। (सूनृतावते) अ० ३।१२।२। प्रियसत्यात्मिका वाक् सूनृता, तद्वते। एवंभूताय यशसे। अन्यद् गतम् ॥

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    बंगाली (2)

    भाषार्थ

    [হে পরমেশ্বরাগ্নি !] (যম্, ত্বা) যেই তোমাকে, (হোতারম্) দাতা এবং অত্তারূপে (ভৌবনাঃ) ভুবনবাসী (ত্রয়োদশ) ১৩ মাস১, তথা (পঞ্চ)২ পাঁচ প্রকারের (মানবাঃ) মননাভ্যাসী মনুষ্য, (মনসা) মন বা মনন দ্বারা (অভি) সাক্ষাৎ (সংবিদঃ) সম্যকভাবে জানে, সেই (বর্চোধসে) দীপ্তিধারীর জন্য, (যশসে) যশস্বীর জন্য, (সুনৃতাবতে) প্রিয় ও সত্য বেদ বাণীর স্বামীর জন্য (তেভ্যঃ অগ্নিভ্যঃ) সেই সব তোমার আগ্নেয় স্বরূপের জন্য, (এতৎ) এই প্রাকৃতিক ও আধ্যাত্ম অর্থাৎ আত্মহবিঃ (হুতম্ অস্তু) আহুতি রূপে প্রদত্ত হোক, সমর্পিত হোক।

    टिप्पणी

    [পরমেশ্বর হলেন অগ্নিরূপ। যথা "তদেবাগ্নিস্তদাদিত্যঃ" (যজু০ ৩২।১)। পরমেশ্বরের নানাবিধ আগ্নেয়স্বরূপের প্রতি প্রাকৃতিক ও আত্মহবিঃ সমর্পিত হয়েছে। চন্দ্র, সূর্য, বিদ্যুৎ, এবং নক্ষত্র তারাগণ হলো পরমেশ্বরাগ্নিরই নানারূপ, "তস্য ভাসা সর্বমিদং বিভাতি"।] [১. মাসগুলোতে সংবিদুঃ-এর শক্তি নেই, মাস জড়। অতঃ মাসের অভিপ্রায় হলো মাস নিবাসিনঃ, উপচারাৎ। যথা মঞ্চাঃ ক্রোশন্তি = মঞ্চস্থাঃ পুরুষাঃ ক্রোশন্তি। ২. পাঁচ প্রকারের মানব যথা, "পঞ্চজনা মম হোত্রং জুষধ্বম্" গন্ধর্বাঃ পিতরো দেবা অসুরা রক্ষাংসি (নিরুক্ত ৩।২।৮)। হোত্রম্-এর অভিপ্রায় হলো অগ্নিহোত্রাদি যজ্ঞ। পিতরঃ এবং দেবাঃ এর সাথে পঠিত "গন্ধর্বাঃ, অসুরাঃ রক্ষাংসি" পদও শ্রেষ্ঠার্থবাচক। গন্ধর্বা হলো গানবিদ্যাজ্ঞাতারঃ, অসুরাঃ হলো প্রজ্ঞানবন্তঃ "অসুঃ প্রজ্ঞানাম" (নিঘং০ ৩।৯)। রক্ষাংসি হলো রক্ষক। পরমেশ্বরকেও রক্ষস্ বলা হয়েছে, যথা "স এব মৃত্যুঃ সোঽমৃতং সোভ্যবং স রক্ষঃ" (অথর্ব০ ১৩।৩।২৫)। পরমেশ্বর হলেন রক্ষস্, তিনি হলেন সবার রক্ষক। ১৩ মাস হলো, ১২ মাস সংবৎসরের এবং ১ অধিমাস যথা “অহোরাত্রৈবিমিতং ত্রিশদঙ্গং ত্রয়োদশং মাসং যো নির্মিমীতে" (অথর্ব০ ১৩।৩।৮)। যা চান্দ্রমাস। সৌরবর্ষের দিন অধিক হয় এবং চান্দ্রবর্ষের দিন ৩০ কম হয়। তার পূর্তির জন্য ১৩তম অধিমাস আছে। অধিমাস=অধিক মাস। মানবাঃ= মননাভ্যাসিনঃ। এই অর্থ এখানে সঙ্গত প্রতীত হয়। যদ্যপি অদ্ভুত। এমন অদ্ভুত অর্থও আছে "মানুষ = মনুষ্যহিতোঽয়মাদিত্যঃ" (মা তে রাধাংসি) মন্ত্র ঋ০ ১।৮৪।২০ এ নিরুক্ত ১৩ (১৪), ৩ (২), খং০ ৩৭ (৫০)।]

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    मन्त्र विषय

    পরমেশ্বরস্য গুণোপদেশঃ

    भाषार्थ

    (ত্রয়োদশ) ত্রয়োদশ [দুই কান, দুই নাসারন্ধ্র, দুই চোখ ও একটি মুখ মাথার এই সাতটি, এবং দুটি হাত, দুই পা, একটি উপস্থেন্দ্রিয়, ও একটি গুদাস্থান, এই ছয়টি মাথার নীচের] (ভৌবনাঃ) ভুবনের সাথে সম্বন্ধিত প্রাণী, এবং (পঞ্চ) পাঁচটি [পৃথিবী, জল, তেজ, বায়ু ও আকাশ, এই পাঁচটি তত্ত্ব] এর সঙ্গে সম্বন্ধিত (মানবাঃ) মনুষ্য (মনসা) মনন শক্তির মাধ্যমে (বর্চোধসে) তেজ ধারণে সহায়ক/তেজদাতা এবং (সূনৃতাবতে) প্রিয় সত্য বাণীযুক্ত (যশসে) যশের জন্য (যম্) যে (ত্বা) তোমাকে [অগ্নিকে] (হোতারম্) দানী (অভি) সর্ব প্রকারে (সংবিদুঃ) সঠিকভাবে জানে (তেভ্যঃ) সেই (অগ্নিভ্যঃ) অগ্নি-সমূহকে [ঈশ্বর তেজকে] (এতৎ) এই (হুতম্) দান [আত্মসমর্পণ] (অস্তু) হোক ॥৫॥

    भावार्थ

    সকল শরীরধারী সেই পরমপিতার মহিমা বিচারপূর্বক গায়ন করে তেজস্বী, সত্যবাদী ও যশস্বী হয়, উনাকে এই নমস্কার হোক॥৫॥ ‘পঞ্চ মানবাঃ’ শব্দ ‘পঞ্চজনাঃ’ শব্দের পর্যায়বাচী, যার অর্থ হলো “মনুষ্য”- নিঘং০ ২।৩। এর ব্যাখ্যা, নিরু০ ৩।৮ এ এরূপ “পঞ্চ জনাঃ” গন্ধর্ব, পিতর, দেব, অসুর ও রাক্ষস, এমনটা কেউ কেউ মানে, চারটি বর্ণ ও নিষাদ পঞ্চম, ইহা ঔষমন্যব ঋষি-এর মত, নিষাদ কিসের জন্য, এর মধ্যে পাপ স্থিত আছে ॥

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