अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 21/ मन्त्र 8
ऋषिः - वसिष्ठः
देवता - अग्निः
छन्दः - भुरिक्त्रिष्टुप्
सूक्तम् - शान्ति सूक्त
12
हिर॑ण्यपाणिं सवि॒तार॒मिन्द्रं॒ बृह॒स्पतिं॒ वरु॑णं मि॒त्रम॒ग्निम्। विश्वा॑न्दे॒वानङ्गि॑रसो हवामह इ॒मं क्र॒व्यादं॑ शमयन्त्व॒ग्निम् ॥
स्वर सहित पद पाठहिर॑ण्यऽपाणिम् । स॒वि॒तार॑म् । इन्द्र॑म् । बृह॒स्पति॑म् । वरु॑णम् । मि॒त्रम् । अ॒ग्निम् । विश्वा॑न् । दे॒वान् । अङ्गि॑रस: । ह॒वा॒म॒हे॒ । इ॒मम् । क्र॒व्य॒ऽअद॑म् । श॒म॒य॒न्तु॒ । अ॒ग्निम् ॥२१.८॥
स्वर रहित मन्त्र
हिरण्यपाणिं सवितारमिन्द्रं बृहस्पतिं वरुणं मित्रमग्निम्। विश्वान्देवानङ्गिरसो हवामह इमं क्रव्यादं शमयन्त्वग्निम् ॥
स्वर रहित पद पाठहिरण्यऽपाणिम् । सवितारम् । इन्द्रम् । बृहस्पतिम् । वरुणम् । मित्रम् । अग्निम् । विश्वान् । देवान् । अङ्गिरस: । हवामहे । इमम् । क्रव्यऽअदम् । शमयन्तु । अग्निम् ॥२१.८॥
भाष्य भाग
हिन्दी (4)
विषय
परमेश्वर के गुणों का उपदेश।
पदार्थ
(हिरण्यपाणिम्) सूर्य आदि तेजों से स्तुति किये हुए (सवितारम्) सबके प्रेरक (इन्द्रम्) बड़े ऐश्वर्यवाले (बृहस्पतिम्) बड़े लोकों के रक्षक (वरुणम्) सबमें श्रेष्ठ, (मित्रम्) हितकारी (अग्निम्) ज्ञानस्वरूप परमेश्वर से (विश्वान्) सब (देवान्) विजय करानेवाले (अङ्गिरसः) ज्ञानों वा पुरुषार्थों को (हवामहे) हम माँगते हैं (इमम्) इस (क्रव्यादम्) मांस खानेवाले (अग्निम्) अग्नि [समान दुःख] को (शमयन्तु) वे शान्त कर दें ॥८॥
भावार्थ
मनुष्य ईश्वर के अनुपम गुणों का अनुभव करके पुरुषार्थी बनें और अग्नि समान तापकारी और शरीरशोषक दुःखों का नाश करें ॥८॥
टिप्पणी
८−(हिरण्यपाणिम्) हिरण्यम्-इति व्याख्यातम्। अ० १।९।२। अशिपणाय्योरुडायलुकौ च। उ० ४।१३३। इति पण व्यवहारे, पन स्तुतौ च-इण्। इति पाणिः। हिरण्यपाणिम्-हिरण्यानि सूर्यादीनि तेजांसि पाणौ स्तवने यस्य तम्-इति दयानन्दभाष्ये य० २२।१०। (सवितारम्) सर्वप्रेरकम् (इन्द्रम्) परमैश्वर्यवन्तम्। (बृहस्पतिम्) बृहतां लोकानां रक्षकम्। (वरुणम्) वरणीयम्। (मित्रम्) स्नेहिनम्। (अग्निम्) ज्ञानस्वरूपं परमेश्वरम्। (देवान्) विजिगीषून्। (अङ्गिरसः) अ० २।१२।४। अगि गतौ-भावे इसि, रुट् च। ज्ञानानि। पुरुषार्थान्। (हवामहे) आह्वयामः। याचामहे। द्विकर्मकत्वाद् अग्निम्-इत्यस्य, अङ्गिरसः-इत्यस्य च कर्मत्वम्। (क्रव्यादम्) क्रव्ये च। पा० ३।२।६९। इति अदेर्विट् मांसभक्षकम्। (शमयन्तु) शान्तं कुर्वन्तु। (अग्निम्) अग्निवत्तापकं दुःखम् ॥
विषय
प्रभु के उपासन+विद्वत्संग से कामाग्रिशमन
पदार्थ
१. (सवितारम्) = उस प्रेरक (अग्निम्) = प्रभु को (हवामहे) पुकारते हैं, जोकि (हिरण्यपाणिम्) = हितरमणीय पाणि-[हाथ]-वाले हैं-जिनका वरदहस्त हमारा हित-ही-हित करता है, हम उस प्रभु को पुकारते हैं जो (इन्द्रम्) = परमैश्वर्यशाली है, (बृहस्पतिम्) = ज्ञान के स्वामी हैं, (वरुणम्) = पाप के निवारक व (मित्रम्) = सबसे स्नेह करनेवाले हैं। इस प्रभु का आराधन ही हमारे जीवन में कामाग्नि को शान्त करेगा। २. हम (विश्वान्) = सब (अङ्गिरस:) = अङ्ग-प्रत्यङ्ग में रस का सञ्चार करनेवाले (देवान्) = ज्ञानी पुरुषों को पुकारते हैं, इनके सम्पर्क में हम ज्ञान की वृद्धि करनेवाले बनते हैं। ये विद्वान् (इमम्) = इस (क्रव्यादम्) = हमारे मांस को खा जानेवाले (अग्रिम्) = कामाग्नि को (शमयन्तु) = शान्त करें।
भावार्थ
प्रभु का उपासन व विद्वानों का संग हमें कामाग्नि को शान्त करने में समर्थ करे ।
भाषार्थ
(हिरण्यपाणिम्) हिरण्य जिसके हाथ में है (सवितारम्) उस सर्वप्रेरक या सर्वोत्पादक परमेश्वर का (इन्द्रम्) इन्द्रियों के अधिष्ठाता जीवात्मा का, (बृहस्पतिम्) बृहती वेदवाणी के पति का, (वरुणम्) अपांपति का, (मित्रम्) स्नेहकारी [वर्षा द्वारा] मेघ का, (अग्निम्) यज्ञियाग्नि का तथा (अङ्गिरसः विश्वान् देवान्) अङ्गों तथा अङ्गी शरीर के सब रसों का (हवामहे) हम कथन करते हैं, ये सब (इमम्, क्रव्यादम्,१ अग्निम्) इस कच्चे मांस का भक्षण करनेवाली शवाग्नि को (शमयन्तु) शान्त करें।"हिरण्यपाणिम्" द्वारा यह दर्शाया है कि परमेश्वर ही सबकी रक्षा दान द्वारा कर रहा है।
विषय
लोकोपकारक अग्नियों का वर्णन ।
भावार्थ
(हिरण्यपाणिं) सुवर्ण को हाथ में लिये, धनाढ्य,(सवितारं) किरणों से सम्पन्न सूर्य के समान सब के प्रेरक,(बृहस्पतिं) वेद विद्या के विद्वान्,(वरुणं) सबसे श्रेष्ठ या पापियों के निवारक,(मित्रम्) जनता को मृत्यु से बचाने वाले,(अग्निम्) आगे २ मार्ग दिखाने वाले विद्वान् और (अंगिरसः) अँग २ विद्यानों में पारंगत, या अंग = शरीर के भीतर व्यापक रसों के विज्ञान को जानने हारे आयुर्वेद के ज्ञाता, (विश्वान् देवान्) समस्त विद्वानों को (हवामहे) हम एकत्र करके उनसे प्रार्थना करते हैं कि (इमम्) इस (क्रव्य-अदम् अग्निम्) क्रव्याद् = नरदेह को खा जाने वाली मृत्यु या श्मशानाग्नि, एवं जनता में फैली हुई मृत्युकारी विपत्ति को (शमयन्तु) शान्त करें, राष्ट्र का ऐसा सुप्रबन्ध करें कि राष्ट्र में मौते घट जाय और लोग सुखी और चिरायु रहें ।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
वसिष्ठ ऋषिः। अग्निर्देवता। १ पुरोनुष्टुप्। २, ३,८ भुरिजः। ५ जगती। ६ उपरिष्टाद्-विराड् बृहती। ७ विराड्गर्भा। ९ निचृदनुष्धुप्। १० अनुष्टुप्। दशर्चं सूक्तम्।
इंग्लिश (4)
Subject
Divine Energy, Kama Fire and Peace
Meaning
We invoke Savita, creator and inspirer whose golden hands bear infinite mercy and generosity, we invoke Indra, lord omnipotent who destroys the forces of destruction, Brhaspati, lord infinite and omniscient, Varuna, lord of judgement and freedom of choice, Mitra, lord of love as warmth of the sun, Agni, spirit of light and sustenance of life, we invoke all divine powers of nature and noble humanity, and we invoke all the spirits of life and breath of life, we invoke all these and pray: fulfil, pacify and subside this fire and let it be self- extinguished to leave the spirit free.
Subject
savitr
Translation
We, the radiant, hereby invoke the golden-handed (hiranyapāņi) inspirer Lord, the resplendent Lord, the Lord supreme, the Lord friendly, venerable and adorable, and all the bounties of Nature - may they appease this fleshdevouring (kravyādam) fire.
Translation
We desire to take advantage of Savitar, the sun having shining rays, Indra, the mighty electricity, Brihaspatir, the other preserving sound, Varuna, the oxygen gas, Mitra, the hydrogen gas, Vishva Devah the eleven physical powers and Sngirah, heats working in body parts and the planes of the world. Let them normalize the fire which devours the uncooked cerials.
Translation
We invoke the wealthy, the goader of all like the Sun, the Vedic scholars, the saviors of men from the sin, the protectors of people from death, learned leaders, skilled physicians, and all learned person to appease this flesh devouring fire of Death.
Footnote
The state should arrange to reduce mortality, and provide for the happiness and longevity of the people.
संस्कृत (1)
सूचना
कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।
टिप्पणीः
८−(हिरण्यपाणिम्) हिरण्यम्-इति व्याख्यातम्। अ० १।९।२। अशिपणाय्योरुडायलुकौ च। उ० ४।१३३। इति पण व्यवहारे, पन स्तुतौ च-इण्। इति पाणिः। हिरण्यपाणिम्-हिरण्यानि सूर्यादीनि तेजांसि पाणौ स्तवने यस्य तम्-इति दयानन्दभाष्ये य० २२।१०। (सवितारम्) सर्वप्रेरकम् (इन्द्रम्) परमैश्वर्यवन्तम्। (बृहस्पतिम्) बृहतां लोकानां रक्षकम्। (वरुणम्) वरणीयम्। (मित्रम्) स्नेहिनम्। (अग्निम्) ज्ञानस्वरूपं परमेश्वरम्। (देवान्) विजिगीषून्। (अङ्गिरसः) अ० २।१२।४। अगि गतौ-भावे इसि, रुट् च। ज्ञानानि। पुरुषार्थान्। (हवामहे) आह्वयामः। याचामहे। द्विकर्मकत्वाद् अग्निम्-इत्यस्य, अङ्गिरसः-इत्यस्य च कर्मत्वम्। (क्रव्यादम्) क्रव्ये च। पा० ३।२।६९। इति अदेर्विट् मांसभक्षकम्। (शमयन्तु) शान्तं कुर्वन्तु। (अग्निम्) अग्निवत्तापकं दुःखम् ॥
बंगाली (2)
भाषार्थ
(হিরণ্যপাণিম্) হিরণ্য যার হাতে রয়েছে (সবিতারম্) সেই সর্বপ্রেরক বা সর্বোৎপাদক পরমেশ্বরের, (ইন্দ্রম্) ইন্দ্রিয়-সমূহের অধিষ্ঠাতা জীবাত্মার, (বৃহস্পতিম্) বৃহতী বেদবাণীর পতির, (বরুণম্) অপাংপতির, (মিত্রম্) স্নেহকারী [বর্ষা দ্বারা] মেঘের, (অগ্নিম্) যজ্ঞিয়াগ্নির এবং (অঙ্গিরসঃ বিশ্বান্ দেবান্) অঙ্গ-সমূহ ও অঙ্গী শরীরের সমস্ত রসের (হবামহে) আমরা কথন করি, এই সব (ইমম্, ক্রব্যাদম্,১ অগ্নিম্) এই কাঁচা মাংসের ভক্ষণকারী শবাগ্নিকে (শমযন্তু) শান্ত করুক। "হিরণ্যপাণিম্" দ্বারা ইহা দর্শানো হয়েছে যে, পরমেশ্বরই সকলের রক্ষা, দান দ্বারা করছেন।
मन्त्र विषय
পরমেশ্বরস্য গুণোপদেশঃ
भाषार्थ
(হিরণ্যপাণিম্) সূর্যাদি তেজ দ্বারা স্তুতি কৃত (সবিতারম্) সর্বপ্রেরক (ইন্দ্রম্) পরম ঐশ্বর্যবান (বৃহস্পতিম্) বৃহৎ লোকসমূহের রক্ষক (বরুণম্) সর্বশ্রেষ্ঠ, (মিত্রম্) হিতকারী (অগ্নিম্) জ্ঞানস্বরূপ পরমেশ্বরের থেকে/প্রতি (বিশ্বান্) সকল (দেবান্) বিজয়ে সহায়ক (অঙ্গিরসঃ) জ্ঞান বা পুরুষার্থ (হবামহে) আমরা প্রার্থনা করি (ইমম্) এই (ক্রব্যাদম্) মাংসভক্ষক (অগ্নিম্) অগ্নি [সমান দুঃখ] কে (শময়ন্তু) তিনি শান্ত করে দেবেন॥৮॥
भावार्थ
মনুষ্য ঈশ্বরের অনুপম গুণ সমূহের অনুভব করে পুরুষার্থী হোক এবং অগ্নি সমান সন্তাপক ও শরীরশোষক দুঃখের বিনাশ করুক ॥৮॥
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