अथर्ववेद - काण्ड 13/ सूक्त 4/ मन्त्र 7
सूक्त - ब्रह्मा
देवता - अध्यात्मम्
छन्दः - प्राजापत्यानुष्टुप्
सूक्तम् - अध्यात्म सूक्त
प॒श्चात्प्राञ्च॒ आ त॑न्वन्ति॒ यदु॒देति॒ वि भा॑सति ॥
स्वर सहित पद पाठप॒श्चात् । प्राञ्च॑: । आ । त॒न्व॒न्ति॒ । यत् । उ॒त्ऽएति॑ । वि । भा॒स॒ति॒ ॥४.७॥
स्वर रहित मन्त्र
पश्चात्प्राञ्च आ तन्वन्ति यदुदेति वि भासति ॥
स्वर रहित पद पाठपश्चात् । प्राञ्च: । आ । तन्वन्ति । यत् । उत्ऽएति । वि । भासति ॥४.७॥
अथर्ववेद - काण्ड » 13; सूक्त » 4; मन्त्र » 7
भाषार्थ -
(प्राञ्चः१) आगे की ओर जाती हुई, अर्थात् बहिर्मुख हुई इन्द्रियां, जब (पश्चात्) पीछे की ओर (आ तन्वन्ति) फैलती हैं, अर्थात् अन्तर्मुख हो जाती हैं, तब (यद्) जो चक्र (उदेति) खिलता है, वह (वि भासति) चमक उठता है। (रश्मिभिः) देखो मन्त्र २।
टिप्पणी -
[जब इन्द्रियां अन्तर्मुख हो जाती हैं तो शारीरिक चक्रों पर चित्त को स्थिर करने पर चक्र खिल जाते हैं। शरीर के पृष्ठ की ओर सुषुम्णा दण्ड हैं। इस में मुख्य आठ चक्र है। इसलिये शरीर को आठ चक्रों वाली पुरी कहा है। "अष्टचक्रा नव द्वारा देवानां पूरयोध्या" (अथर्व० १०।२।३१)। प्रत्येक चक्र में सुषुम्णा दण्ड के अतिसूक्ष्म तन्तु विद्यमान है। जिस चक्र पर चित्त को स्थिर किया जाता है उस चक्र के तन्तु खिल कर, कमल की डोडी की तरह खिल कर, प्रकाश देने लगते हैं]।[१. "पराञ्चिखानि व्यतृणत्स्वयंभू" (उपनिषद् कठ० २।१।१)।]