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  • अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 4/ मन्त्र 7
    ऋषिः - ब्रह्मा देवता - अध्यात्मम् छन्दः - प्राजापत्यानुष्टुप् सूक्तम् - अध्यात्म सूक्त
    25

    प॒श्चात्प्राञ्च॒ आ त॑न्वन्ति॒ यदु॒देति॒ वि भा॑सति ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    प॒श्चात् । प्राञ्च॑: । आ । त॒न्व॒न्ति॒ । यत् । उ॒त्ऽएति॑ । वि । भा॒स॒ति॒ ॥४.७॥


    स्वर रहित मन्त्र

    पश्चात्प्राञ्च आ तन्वन्ति यदुदेति वि भासति ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    पश्चात् । प्राञ्च: । आ । तन्वन्ति । यत् । उत्ऽएति । वि । भासति ॥४.७॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 13; सूक्त » 4; मन्त्र » 7
    Acknowledgment

    हिन्दी (4)

    विषय

    परमात्मा और जीवात्मा के विषय का उपदेश।

    पदार्थ

    वे [सब लोक] [परमात्मा के] (पश्चात्) पीछे (प्राञ्चः) आगे बढ़ते हुए (आ) सब ओर से (तन्वन्ति) फैलते हैं, (यत्) जब वह (उदेति) उदय होता है और (वि भासति) विविध प्रकार चमकता है ॥७॥

    भावार्थ

    विवेकी योगी जन अनुभव करते हैं कि यह सब लोक परमात्मा के ही धारण-आकर्षण नियमों में चलते हैं ॥७॥

    टिप्पणी

    ७−(पश्चात्) परमात्मानमनुसृत्य (प्राञ्चः) आभिमुख्येन गच्छन्तः (आ) समन्तात् (तन्वन्ति) विस्तीर्यन्ते (यत्) यदा (उदेति) उद्गच्छति (वि) विविधम् (भासति) दीप्यते ॥

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    विषय

    दश वत्सा:

    पदार्थ

    १. (तम्) = उस परमात्मा को (एकशीर्षाण:) = एक आत्मारूप सिरवाले (युता:) = परस्पर मिले हुए-मिलकर कार्य करते हुए (दश वत्सा:) = दस अत्यन्त प्रिय प्राण (उपतिष्ठन्ति) = समीपता से उपस्थित होते हैं। शरीर में प्राण प्राण, अपान, व्यान, उदान, समान, नाग, कूर्म, कृकल, देवदत्त, धनञ्जय', इन दस भागों में विभक्त होकर कार्य करता है। ये शरीर में प्रियतम वस्तु हैं, इनके साथ ही जीवन है। इनकी साधना से इनका अधिष्ठाता 'आत्मा' प्रभु की उपासना करनेवाला बनता है। २. ये प्राण (पश्चात्) = पीछे व (प्राञ्चः) = आगे गतिवाले (आतन्वन्ति) = शरीर की शक्तियों का विस्तार करते हैं। इस प्राणसाधना को करता हुआ जीव (यत् उदेति) = जब उत्कर्ष को प्राप्त करता है तब (विभासति) = विशिष्ट दीप्तिवाला होता है। वस्तुत: यह प्राणसाधक प्रभु की दीति से (दीप्ति) = सम्पन्न बनता है। ३. (एष मारुतः गण:) = यह प्राणों का गण (तस्य) = उस प्रभु का ही है। प्रभु ही जीव के लिए इसे प्राप्त कराते हैं। (स) = वे प्रभु (शिक्याकृतः) = इन प्राणों का आधारभूत छींका बना हुआ (एति) = इस साधक को प्राप्त होता है। वस्तुत: प्रभु की उपासना प्राणशक्ति की वृद्धि का कारण बनती है। प्राणसाधना द्वारा हम प्रभु का उपासन कर पाते हैं।

    भावार्थ

    आत्मा अधिष्ठाता है, दस प्राण उसके वत्स हैं, प्रियतम वस्तु हैं। ये पीछे-आगे शरीर में सर्वत्र शक्ति का विस्तार करते हैं। इन प्राणों का आधार प्रभु हैं। ये प्राण हमें प्रभु प्रासि में सहायक होते हैं।

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    भाषार्थ

    (प्राञ्चः१) आगे की ओर जाती हुई, अर्थात् बहिर्मुख हुई इन्द्रियां, जब (पश्चात्) पीछे की ओर (आ तन्वन्ति) फैलती हैं, अर्थात् अन्तर्मुख हो जाती हैं, तब (यद्) जो चक्र (उदेति) खिलता है, वह (वि भासति) चमक उठता है। (रश्मिभिः) देखो मन्त्र २।

    टिप्पणी

    [जब इन्द्रियां अन्तर्मुख हो जाती हैं तो शारीरिक चक्रों पर चित्त को स्थिर करने पर चक्र खिल जाते हैं। शरीर के पृष्ठ की ओर सुषुम्णा दण्ड हैं। इस में मुख्य आठ चक्र है। इसलिये शरीर को आठ चक्रों वाली पुरी कहा है। "अष्टचक्रा नव द्वारा देवानां पूरयोध्या" (अथर्व० १०।२।३१)। प्रत्येक चक्र में सुषुम्णा दण्ड के अतिसूक्ष्म तन्तु विद्यमान है। जिस चक्र पर चित्त को स्थिर किया जाता है उस चक्र के तन्तु खिल कर, कमल की डोडी की तरह खिल कर, प्रकाश देने लगते हैं]।[१. "पराञ्चिखानि व्यतृणत्स्वयंभू" (उपनिषद् कठ० २।१।१)।]

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    विषय

    रोहित, परमेश्वर का वर्णन।

    भावार्थ

    वे दशों प्राण (पश्चात्) पीछे से (प्राञ्चः) आगे को (आ तन्वन्ति) फैलते हैं, भीतर से बाहर को आते हैं (यद्) जब वह आदित्यमय प्राणात्मा (उद् एति) उदित होता है और तब वह (विभासति) विविधरूपों में प्रकाशित होता है।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    ब्रह्मा ऋषिः। अध्यात्मं रोहितादित्यो देवता। त्रिष्टुप छन्दः। षट्पर्यायाः। मन्त्रोक्ता देवताः। १-११ प्राजापत्यानुष्टुभः, १२ विराङ्गायत्री, १३ आसुरी उष्णिक्। त्रयोदशर्चं प्रथमं पर्यायसूक्तम्॥

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    इंग्लिश (4)

    Subject

    Savita, Aditya, Rohita, the Spirit

    Meaning

    When the sun rises, shines and radiates its light, the senses and mind, which normally move outwards, come back and turn inward. The sky overflows with light, Mahendra comes wrapped in the halo of divinity. (When the divine light shines in the Sahasrar Chakra, the lower chakras receive and overflow with the light of divinity which flows down to the heart core.)

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    Translation

    They spread forward, and also backwards, when He rises up and shines forth. The great resplendent Lord comes to the dimmed sky surrounded with rays.

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    Translation

    These ten vital airs spread them from west to east and the sun which rises up shines splendidly. This…this,

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    Translation

    The Pranas (vital breaths) go out from inside, when God manifests Himself and shines in various ways. Great God pervades all the worlds with His refulgence.

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    संस्कृत (1)

    सूचना

    कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।

    टिप्पणीः

    ७−(पश्चात्) परमात्मानमनुसृत्य (प्राञ्चः) आभिमुख्येन गच्छन्तः (आ) समन्तात् (तन्वन्ति) विस्तीर्यन्ते (यत्) यदा (उदेति) उद्गच्छति (वि) विविधम् (भासति) दीप्यते ॥

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