अथर्ववेद - काण्ड 2/ सूक्त 5/ मन्त्र 1
सूक्त - भृगुराथर्वणः
देवता - इन्द्रः
छन्दः - निचृदुपरिष्टाद्बृहती
सूक्तम् - इन्द्रशौर्य सूक्त
इन्द्र॑ जु॒षस्व॒ प्र व॒हा या॑हि शूर॒ हरि॑भ्याम्। पिबा॑ सु॒तस्य॑ म॒तेरि॒ह म॒धोश्च॑का॒नश्चारु॒र्मदा॑य ॥
स्वर सहित पद पाठइन्द्र॑ । जु॒षस्व॑ । प्र । व॒ह॒ । आ । या॒हि॒ । शू॒र॒ । हरि॑ऽभ्याम् । पिब॑ । सु॒तस्य॑ । म॒ते: । इ॒ह । मधो॑: । च॒का॒न: । चारु॑: । मदा॑य ॥५.१॥
स्वर रहित मन्त्र
इन्द्र जुषस्व प्र वहा याहि शूर हरिभ्याम्। पिबा सुतस्य मतेरिह मधोश्चकानश्चारुर्मदाय ॥
स्वर रहित पद पाठइन्द्र । जुषस्व । प्र । वह । आ । याहि । शूर । हरिऽभ्याम् । पिब । सुतस्य । मते: । इह । मधो: । चकान: । चारु: । मदाय ॥५.१॥
अथर्ववेद - काण्ड » 2; सूक्त » 5; मन्त्र » 1
भाषार्थ -
(इन्द्र) हे ऐश्वर्यसम्पन्न सूर्य! (जुषस्व) तू सेवन कर, (प्रवह) प्रवाहरूप में प्राप्त हो, ( आ याहि ) आ (हरिभ्याम् ) हरण करनेवाले दो अश्वों के द्वारा, (शूर) हे शौर्ययुक्त ! (इह) इस पृथिवी पर (मतेः) मननीय (सुतस्य) अभिषुत (मधोः) मधुर जल का (पिब) पान कर, (चकानः) और तृप्त हुआ (मदाय) हमारी प्रसन्नता के लिए ( चारु: ) रुचिकर हो।
टिप्पणी -
[मन्त्र में कविता के शब्दों में सूर्य का वर्णन हुआ है। जुषस्व द्वारा मधुर जल का सेवन अभिप्रेत है। मधु उदकनाम (निघं० १।१२)। सूर्य रश्म्यग्रो द्वारा सामुद्रिक जल का पान करता है। यद्यपि सामुद्रिक जल नमकीन होता है, मधुर नहीं, परन्तु सूर्य की तीव्र रश्मियों के द्वारा अभिषुत हुए जल का सूर्य पान करता है, जोकि नमकीन नहीं होता । रश्मियों के अग्रभागों को मुख कहा है, जिन द्वारा सूर्य जलपान करता है । चकान: = चक तृप्तौ (भ्वादिः)+शानच् । तृप्ति का अभिप्राय है जल का प्रभूत पान कर तृप्ति। वर्षा ऋतु में जल का प्रभूत पान करना होता है।]