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अथर्ववेद > काण्ड 4 > सूक्त 18

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  • अथर्ववेद - काण्ड 4/ सूक्त 18/ मन्त्र 8
    सूक्त - शुक्रः देवता - अपामार्गो वनस्पतिः छन्दः - अनुष्टुप् सूक्तम् - अपामार्ग सूक्त

    अ॑प॒मृज्य॑ यातु॒धाना॒नप॒ सर्वा॑ अरा॒य्यः॑। अपा॑मार्ग॒ त्वया॑ व॒यं सर्वं॒ तदप॑ मृज्महे ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    अ॒प॒ऽमृज्य॑ । या॒तु॒ऽधाना॑न् । अप॑ । सर्वा॑: । अ॒रा॒य्य᳡: । अपा॑मार्ग: । त्वया॑ । व॒यम् । सर्व॑म् । तत् । अप॑ । मृ॒ज्म॒हे॒॥१८.८॥


    स्वर रहित मन्त्र

    अपमृज्य यातुधानानप सर्वा अराय्यः। अपामार्ग त्वया वयं सर्वं तदप मृज्महे ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    अपऽमृज्य । यातुऽधानान् । अप । सर्वा: । अराय्य: । अपामार्ग: । त्वया । वयम् । सर्वम् । तत् । अप । मृज्महे॥१८.८॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 4; सूक्त » 18; मन्त्र » 8

    भाषार्थ -
    (यातुधानान्) यातना देने के विचारों को (अपमृज्य) पृथक् कर, और पुरुष को विशुद्ध करके, तथा (सर्वाः) सब (अराय्यः) अराति-प्रवृत्तियों को (अप) पृथक् कर और पुरुष को विशुद्ध करके, (अपामार्ग) हे अपामार्ग [ओषधि] ! (वयम्) हम (त्वया) तेरे द्वारा (तत् सर्वम्) उस सब रोग-समूह को (अप) पृथक् करके (मृज्महे) अपने को शुद्ध करते हैं।

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