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  • यजुर्वेद - अध्याय 12/ मन्त्र 107
    ऋषिः - पावकाग्निर्ऋषिः देवता - विद्वान् देवता छन्दः - भुरिगार्षी पङ्क्तिः स्वरः - पञ्चमः
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    पा॒व॒कव॑र्चाः शु॒क्रव॑र्चा॒ऽअनू॑नवर्चा॒ऽउदि॑यर्षि भा॒नुना॑। पु॒त्रो मा॒तरा॑ वि॒चर॒न्नुपा॑वसि पृ॒णक्षि॒ रोद॑सीऽउ॒भे॥१०७॥

    स्वर सहित पद पाठ

    पा॒व॒कव॑र्चा॒ इति॑ पाव॒कऽव॑र्चाः। शु॒क्रव॑र्चा॒ इति॑ शु॒क्रऽव॑र्चाः। अनू॑नवर्चा॒ इत्यनू॑नऽवर्चाः। उत्। इ॒य॒र्षि॒। भा॒नुना॑। पु॒त्रः। मा॒तरा॑। वि॒चर॒न्निति॑ वि॒ऽचर॑न्। उप॑। अ॒व॒सि॒। पृ॒णक्षि॑। रोद॑सी॒ इति॒ रोद॑सी। उ॒भे इत्यु॒भे ॥१०७ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    पावकवर्चाः शुक्रवर्चाऽअनूनवर्चाऽउदियर्षि भानुना । पुत्रो मातरा विचरन्नुपावसि पृणक्षि रोदसी उभे ॥


    स्वर रहित पद पाठ

    पावकवर्चा इति पावकऽवर्चाः। शुक्रवर्चा इति शुक्रऽवर्चाः। अनूनवर्चा इत्यनूनऽवर्चाः। उत्। इयर्षि। भानुना। पुत्रः। मातरा। विचरन्निति विऽचरन्। उप। अवसि। पृणक्षि। रोदसी इति रोदसी। उभे इत्युभे॥१०७॥

    यजुर्वेद - अध्याय » 12; मन्त्र » 107
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    पदार्थ -
    हे मनुष्य! जैसे (पुत्रः) पुत्र ब्रह्मचर्यादि आश्रमों में (विचरन्) विचरता हुआ विद्या को प्राप्त होता और (भानुना) प्रकाश से (पावकवर्चाः, शुक्रवर्चाः) बिजुली और सूर्य के प्रकाश के समान न्याय करने और (अनूनवर्चाः) पूर्ण विद्याऽभ्यास करने हारा और जैसे (उभे) दोनों (रोदसी) आकाश और पृथिवी परस्पर सम्बन्ध करते हैं, वैसे (उत्, इयर्षि) विद्या को प्राप्त होता राज्य का (पृणक्षि) सम्बन्ध करता और (मातरा) माता-पिता की (उपावसि) रक्षा करता है, इससे तू धर्मात्मा है॥१०७॥

    भावार्थ - मातापिताओं को यह अति उचित है कि सन्तानों को उत्पन्न कर बाल्यावस्था में आप शिक्षा दे, ब्रह्मचर्य करा, आचार्य के कुल में भेज के विद्यायुक्त करें। सन्तानों को चाहिये कि विद्या और अच्छी शिक्षा से युक्त हो और पुरुषार्थ से ऐश्वर्य्य को बढ़ा के अभिमान और मत्सरतारहित प्रीति से माता-पिता की मन, वाणी और कर्म्म से यथावत् सेवा करें॥१०७॥

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