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  • यजुर्वेद - अध्याय 12/ मन्त्र 35
    ऋषिः - वसिष्ठ ऋषिः देवता - आपो देवताः छन्दः - आर्षी त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः
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    आपो॑ देवीः॒ प्रति॑गृभ्णीत॒ भस्मै॒तत् स्यो॒ने कृ॑णुध्वꣳ सुर॒भाऽउ॑ लो॒के। तस्मै॑ नमन्तां॒ जन॑यः सु॒पत्नी॑र्मा॒तेव॑ पु॒त्रं बि॑भृता॒प्स्वेनत्॥३५॥

    स्वर सहित पद पाठ

    आपः॑। दे॒वीः॒। प्रति॑। गृ॒भ्णी॒त॒। भस्म॑। ए॒तत्। स्यो॒ने। कृ॒णु॒ध्व॒म्। सु॒र॒भौ। ऊँ॒ इत्यूँ॑। लो॒के। तस्मै॑। न॒म॒न्ता॒म्। जन॑यः। सु॒पत्नी॒रिति॑ सु॒ऽपत्नीः॑। मा॒तेवेति॑ मा॒ताऽइ॑व। पु॒त्रम्। बि॒भृ॒त॒। अ॒प्स्वित्य॒प्ऽसु। ए॒न॒त् ॥३५ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    आपो देवीः प्रति गृभ्णीत भस्मैतत्स्योने कृणुध्वँसुरभा लोके । तस्मै नमन्ताञ्जनयः सुपत्नीर्मातेव पुत्रम्बिभृताप्स्वेनत् ॥


    स्वर रहित पद पाठ

    आपः। देवीः। प्रति। गृभ्णीत। भस्म। एतत्। स्योने। कृणुध्वम्। सुरभौ। ऊँ इत्यूँ। लोके। तस्मै। नमन्ताम्। जनयः। सुपत्नीरिति सुऽपत्नीः। मातेवेति माताऽइव। पुत्रम्। बिभृत। अप्स्वित्यप्ऽसु। एनत्॥३५॥

    यजुर्वेद - अध्याय » 12; मन्त्र » 35
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    पदार्थ -
    हे विद्वान् मनुष्यो! जो (आपः) पवित्र जलों के तुल्य सम्पूर्ण शुभगुण और विद्याओं में व्याप्त बुद्धि (देवीः) सुन्दर रूप और स्वभाव वाली कन्या (सुरभौ) ऐश्वर्य्य के प्रकाश से युक्त (लोके) देखने योग्य लोकों में अपने पतियों को प्रसन्न करें, उन को (प्रति गृभ्णीत) स्वीकार करो तथा उन को सुखयुक्त (कृणुध्वम्) करो, जो (एतत्) यह (भस्म) प्रकाशक तेज है (तस्मै) उस के लिये जो (सुपत्नीः) सुन्दर (जनयः) विद्या और अच्छी शिक्षा से प्रसिद्ध हुई स्त्री नमती हैं, उनके प्रति आप लोग भी (नमन्ताम्) नम्र हूजिये (उ) और तुम स्त्री-पुरुष दोनों मिल के (पुत्रम्) पुत्र को (मातेव) माता के तुल्य (अप्सु) प्राणों में (एनत्) इस पुत्र को (बिभृत) धारण करो॥३५॥

    भावार्थ - इस मन्त्र में उपमालङ्कार है। मनुष्यों को चाहिये कि परस्पर प्रसन्नता के साथ स्वयंवर विवाह, धर्म के अनुसार पुत्रों को उत्पन्न और उन को विद्वान् करके गृहाश्रम के ऐश्वर्य्य की उन्नति करें॥३५॥

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