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  • यजुर्वेद - अध्याय 12/ मन्त्र 84
    ऋषिः - भिषगृषिः देवता - वैद्या देवताः छन्दः - विराडनुष्टुप् स्वरः - गान्धारः
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    अति॒ विश्वाः॑ परि॒ष्ठा स्ते॒नऽइ॑व व्र॒जम॑क्रमुः। ओष॑धीः॒ प्राचु॑च्यवु॒र्यत्किं च॑ त॒न्वो रपः॑॥८४॥

    स्वर सहित पद पाठ

    अति॑। विश्वाः॑। प॒रि॒ष्ठाः। प॒रि॒स्था इति॑ परि॒ऽस्थाः। स्ते॒नइ॒वेति॑ स्ते॒नःऽइ॑व। व्र॒जम्। अ॒क्र॒मुः॒। ओष॑धीः। प्र। अ॒चु॒च्य॒वुः। यत्। किम्। च॒। त॒न्वः᳖। रपः॑ ॥८४ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    अति विश्वाः परिष्ठा स्तेनऽइव व्रजमक्रमुः । ओषधीः प्राचुच्यवुर्यत्किञ्च तन्वो रपः ॥


    स्वर रहित पद पाठ

    अति। विश्वाः। परिष्ठाः। परिस्था इति परिऽस्थाः। स्तेनइवेति स्तेनःऽइव। व्रजम्। अक्रमुः। ओषधीः। प्र। अचुच्यवुः। यत्। किम्। च। तन्वः। रपः॥८४॥

    यजुर्वेद - अध्याय » 12; मन्त्र » 84
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    पदार्थ -
    हे मनुष्यो! तुम लोग जो (परिष्ठाः) सब ओर से स्थित (विश्वा) सब (ओषधीः) सोमलता और जौ आदि ओषधी (व्रजम्) जैसे गोशाला को (स्तेन इव) भित्ति फोड़ के चोर जावे, वैसे पृथिवी फोड़ के (अत्यक्रमुः) निकलती हैं, (यत्) जो (किञ्च) कुछ (तन्वः) शरीर का (रपः) पापों के फल के समान रोगरूप दुःख है, उस सब को (प्राचुच्यवुः) नष्ट करती हैं, उन ओषधियों को युक्ति से सेवन करो॥८४॥

    भावार्थ - इस मन्त्र में उपमालङ्कार है। जैसे गौओं के स्वामी से धमकाया हुआ चोर भित्ति को फांद के भागता है, वैसे ही श्रेष्ठ ओषधियों से ताड़ना किये रोग नष्ट हो के भाग जाते हैं॥८४॥

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