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  • यजुर्वेद - अध्याय 15/ मन्त्र 25
    ऋषिः - परमेष्ठी ऋषिः देवता - अग्निर्देवता छन्दः - निचृत त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः
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    अवो॑चाम क॒वये॒ मेध्या॑य॒ वचो॑ व॒न्दारु॑ वृष॒भाय॒ वृष्णे॑। गवि॑ष्ठिरो॒ नम॑सा॒ स्तोम॑म॒ग्नौ दि॒वीव रु॒क्ममु॑रु॒व्यञ्च॑मश्रेत्॥२५॥

    स्वर सहित पद पाठ

    अवो॑चाम। क॒वये॑। मेध्या॑य। वचः॑। व॒न्दारु॑। वृ॒ष॒भाय॑। वृ॒ष्णे॑। गवि॑ष्ठिरः। गवि॑स्थिर॒ इति॒ गवि॑ऽस्थिरः। नम॑सा। स्तोम॑म्। अ॒ग्नौ। दि॒वी᳖वेति॑ दि॒विऽइ॑व। रु॒क्मम्। उ॒रु॒व्यञ्च॒मित्यु॑रु॒ऽव्यञ्च॑म्। अ॒श्रे॒त् ॥२५ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    अवोचाम कवये मेध्याय वचो वन्दारु वृषभाय वृष्णे । गविष्ठिरो नमसा स्तोममग्नौ दिवीव रुक्ममुरुव्यञ्चमश्रेत् ॥


    स्वर रहित पद पाठ

    अवोचाम। कवये। मेध्याय। वचः। वन्दारु। वृषभाय। वृष्णे। गविष्ठिरः। गविस्थिर इति गविऽस्थिरः। नमसा। स्तोमम्। अग्नौ। दिवीवेति दिविऽइव। रुक्मम्। उरुव्यञ्चमित्युरुऽव्यञ्चम्। अश्रेत्॥२५॥

    यजुर्वेद - अध्याय » 15; मन्त्र » 25
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    पदार्थ -
    हम लोग जैसे (गविष्ठिरः) किरणों में रहने वाली विद्युत् (दिवीव) सूर्यप्रकाश के समान (उरुव्यञ्चम्) विशेष करके बहुतों में गमनशील (रुक्मम्) सूर्य का (अश्रेत्) आश्रय करती है, वैसे (मेध्याय) सब शुभ लक्षणों से युक्त पवित्र (वृषभाय) बली (वृष्णे) वर्षा के हेतु (कवये) बुद्धिमान् के लिये (वन्दारु) प्रशंसा के योग्य (वचः) वचन को और (अग्नौ) जाठराग्नि में (नमसा) अन्न आदि से (स्तोमम्) प्रशस्त कार्यों को (अवोचाम) कहें॥२५॥

    भावार्थ - इस मन्त्र में उपमालङ्कार है। विद्वानों को चाहिये कि सुशील शुद्धबुद्धि विद्यार्थी के लिये परम प्रयत्न से विद्या देवें, जिससे वह विद्या पढ़ के सूर्य के प्रकाश में घट-पटादि को देखते हुए के समान सब को यथावत् जान सके॥२५॥

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