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  • यजुर्वेद - अध्याय 15/ मन्त्र 60
    ऋषिः - प्रियमेधा ऋषिः देवता - आपो देवताः छन्दः - विराडनुष्टुप् स्वरः - गान्धारः
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    ताऽअ॑स्य॒ सूद॑दोहसः॒ सोम॑ꣳ श्रीणन्ति॒ पृश्न॑यः। जन्म॑न्दे॒वानां॒ विश॑स्त्रि॒ष्वारो॑च॒ने दि॒वः॥६०॥

    स्वर सहित पद पाठ

    ताः। अ॒स्य॒। सूद॑दोहस॒ इति॒ सूद॑ऽदोहसः। सोम॑म्। श्री॒ण॒न्ति॒। पृश्न॑यः। जन्म॑न्। दे॒वाना॑म्। विशः॑। त्रि॒षु। आ॒। रो॒च॒ने। दि॒वः ॥६० ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    ताऽअस्य सूददोहसः सोमँ श्रीणन्ति पृश्नयः । जन्मन्देवानाँविशस्त्रिष्वा रोचने दिवः ॥


    स्वर रहित पद पाठ

    ताः। अस्य। सूददोहस इति सूदऽदोहसः। सोमम्। श्रीणन्ति। पृश्नयः। जन्मन्। देवानाम्। विशः। त्रिषु। आ। रोचने। दिवः॥६०॥

    यजुर्वेद - अध्याय » 15; मन्त्र » 60
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    पदार्थ -
    जो विद्या और अच्छी शिक्षा से युक्त (देवानाम्) विद्वानों के (जन्मन्) जन्म विषय में (पृश्नयः) पूछने हारी (सूददोहसः) रसोइया और कार्य्यों के पूर्ण करने वाले पुरुषों से युक्त (त्रिषु) वेदरीति से कर्म, उपासना और ज्ञानों तथा (दिवः) सब के अन्तःप्रकाशक परमात्मा के (रोचने) प्रकाश में वर्त्तमान (विशः) प्रजा हैं, (ताः) वे (अस्य) इस सभाध्यक्ष राजा के (सोमम्) सोमवल्ली आदि ओषधियों के रसों से युक्त भोजनीय पदार्थों को (आ) सब ओर से (श्रीणन्ति) पकाती हैं॥६०॥

    भावार्थ - प्रजापालक पुरुषों को चाहिये कि सब प्रजाओं को विद्या और अच्छी शिक्षा के ग्रहण में नियुक्त करें और प्रजा भी स्वयं नियुक्त हों। इस के विना कर्म, उपासना, ज्ञान और ईश्वर का यथार्थ बोध कभी नहीं हो सकता॥६०॥

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