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  • यजुर्वेद - अध्याय 17/ मन्त्र 47
    ऋषिः - अप्रतिरथ ऋषिः देवता - मरुतो देवताः छन्दः - निचृदार्षी त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः
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    अ॒सौ या सेना॑ मरुतः॒ परे॑षाम॒भ्यैति॑ न॒ऽओज॑सा॒ स्पर्द्ध॑माना। तां गू॑हत॒ तम॒साप॑व्रतेन॒ यथा॒मीऽअ॒न्योऽअ॒न्यन्न जा॒नन्॥४७॥

    स्वर सहित पद पाठ

    अ॒सौ। या। सेना॑। म॒रु॒तः॒। परे॑षाम्। अ॒भि। आ। एति॑। नः॒। ओज॑सा। स्पर्द्ध॑माना। ताम्। गू॒ह॒त॒। तम॑सा। अप॑व्रते॒नेत्यप॑ऽव्रतेन। यथा॑। अ॒मीऽइत्य॒मी। अ॒न्यः। अ॒न्यम्। न। जा॒नन् ॥४७ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    असौ या सेना मरुतः परेषामभ्यैति नऽओजसा स्पर्धमाना । ताङ्गूहत तमसापव्रतेन यथामीऽअन्यो अन्यन्न जानन् ॥


    स्वर रहित पद पाठ

    असौ। या। सेना। मरुतः। परेषाम्। अभि। आ। एति। नः। ओजसा। स्पर्द्धमाना। ताम्। गूहत। तमसा। अपव्रतेनेत्यपऽव्रतेन। यथा। अमीऽइत्यमी। अन्यः। अन्यम्। न। जानन्॥४७॥

    यजुर्वेद - अध्याय » 17; मन्त्र » 47
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    पदार्थ -
    हे (मरुतः) ऋतु-ऋतु में यज्ञ करने वाले विद्वानो! तुम (या) जो (असौ) वह (परेषाम्) शत्रुओं की (स्पर्द्धमाना) ईर्ष्या करती हुई (सेना) सेना (ओजसा) बल से (नः) हम लोगों के (अभि, आ, एति) सन्मुख सब ओर से प्राप्त होती है, (ताम्) उसको (अपव्रतेन) छेदनरूप कठोर कर्म्म से और (तमसा) तोप आदि शस्त्रों के उठे हुए धूम वा मेघ (या) पहाड़ के आकार जो अस्त्र का धूम होता है, उससे (गूहत) ढांपो (अमी) ये शत्रुसेनास्थ जन (यथा) जैसे (अन्यः, अन्यम्) परस्पर एक-दूसरे को (न)(जानन्) जानें, वैसा पराक्रम करो॥४७॥

    भावार्थ - जब युद्ध के लिये प्राप्त हुई शत्रुओं की सेनाओं से युद्ध करे, तब सब ओर से शस्त्र और अस्त्रों के प्रहार से उठी धूम-धूली आदि से उसको ढांपकर जैसे ये शत्रुजन परस्पर अपने दूसरे को न जानें, वैसा ढंग सेनापति आदि को करना चाहिये॥४७॥

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