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  • यजुर्वेद - अध्याय 17/ मन्त्र 66
    ऋषिः - विधृतिर्ऋषिः देवता - अग्निर्देवता छन्दः - निचृदार्षी त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः
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    प्राची॒मनु॑ प्र॒दिशं॒ प्रेहि॑ वि॒द्वान॒ग्नेर॑ग्ने पु॒रोऽअ॑ग्निर्भवे॒ह। विश्वा॒ऽआशा॒ दीद्या॑नो॒ वि भा॒ह्यूर्जं॑ नो धेहि द्वि॒पदे॒ चतु॑ष्पदे॥६६॥

    स्वर सहित पद पाठ

    प्राची॑म्। अनु॑। प्र॒दिश॒मिति॑ प्र॒ऽदिश॑म्। प्र। इ॒हि॒। वि॒द्वा॒न्। अ॒ग्नेः। अ॒ग्ने॒। पु॒रोऽअ॑ग्नि॒रिति॑ पु॒रःऽअ॑ग्निः। भ॒व॒। इ॒ह। विश्वाः॑। आशाः॑। दीद्या॑नः। वि। भा॒हि॒। ऊर्ज्ज॑म्। नः॒। धे॒हि॒। द्वि॒ऽपदे॑। चतु॑ष्पदे॑। चतुः॑पद॒ इति॒ चतुः॑ऽपदे ॥६६ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    प्राचीमनु प्रदिशम्प्रेहि विद्वानग्नेरग्ने पुरोऽअग्निर्भवेह । विश्वाऽआशा दीद्यानो वि भाह्यूर्जन्नो धेहि द्विपदे चतुष्पदे ॥


    स्वर रहित पद पाठ

    प्राचीम्। अनु। प्रदिशमिति प्रऽदिशम्। प्र। इहि। विद्वान्। अग्नेः। अग्ने। पुरोऽअग्निरिति पुरःऽअग्निः। भव। इह। विश्वाः। आशाः। दीद्यानः। वि। भाहि। ऊर्ज्जम्। नः। धेहि। द्विऽपदे। चतुष्पदे। चतुःपद इति चतुःऽपदे॥६६॥

    यजुर्वेद - अध्याय » 17; मन्त्र » 66
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    पदार्थ -
    हे (अग्ने) शत्रुओं के जलानेहारे सभापति! तू (प्राचीम्) पूर्व (प्रदिशम्) दिशा की ओर को (अनु, प्र, इहि) अनुकूलता से प्राप्त हो, (इह) इस राज्यकर्म में (अग्नेः) आग्नेय अस्त्र आदि के योग से (पुरोऽअग्निः) अग्नि के तुल्य अग्रगामी (विद्वान्) कार्य्य के जानने वाले विद्वान् (भव) होओ (विश्वाः) समस्त (आशाः) दिशाओं को (दीद्यानः) निरन्तर प्रकाशित करते हुए सूर्य्य के समान (नः) हम लोगों के (द्विपदे) मनुष्यादि और (चतुष्पदे) गौ आदि पशुओं के लिये (ऊर्ज्जम्) अन्नादि पदार्थ को (धेहि) धारण कर तथा विद्या, विनय और पराक्रम से अभय का (वि, भाहि) प्रकाश कर॥६६॥

    भावार्थ - जो पूर्ण ब्रह्मचर्य्य से समस्त विद्याओं का अभ्यास कर युद्धविद्याओं को जान सब दिशाओं में स्तुति को प्राप्त होते हैं, वे मनुष्यों और पशुओं के खाने योग्य पदार्थों की उन्नति और रक्षा का विधान कर आनन्दयुक्त होते हैं॥६६॥

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