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  • यजुर्वेद - अध्याय 29/ मन्त्र 17
    ऋषिः - भार्गवो जमदग्निर्ऋषिः देवता - अग्निर्देवता छन्दः - त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः
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    आ॒त्मानं॑ ते॒ मन॑सा॒राद॑जानाम॒वो दि॒वा प॒तय॑न्तं पत॒ङ्गम्।शिरो॑ऽअपश्यं॒ प॒थिभिः॑ सु॒गेभि॑ररे॒णुभि॒र्जेह॑मानं पत॒त्त्रि॥१७॥

    स्वर सहित पद पाठ

    आ॒त्मान॑म्। ते॒। मन॑सा। आ॒रात्। अ॒जा॒ना॒म्। अ॒वः। दि॒वा। प॒तय॑न्तम्। प॒त॒ङ्गम्। शिरः॑। अ॒प॒श्य॒म्। प॒थिभि॒रिति॑ प॒थिऽभिः॑। सु॒गेभि॒रिति॑ सु॒ऽगेभिः॑। अ॒रे॒णुभि॒रित्य॑रे॒णुऽभिः॑। जेह॑मानम्। प॒त॒त्रि ॥१७ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    आत्मानन्ते मनसारादजानामवो दिवा पतयन्तम्पतङ्गम् । शिरोऽअपश्यम्पथिभिः सुगेभिररेणुभिर्जेहमानम्पतत्रि ॥


    स्वर रहित पद पाठ

    आत्मानम्। ते। मनसा। आरात्। अजानाम्। अवः। दिवा। पतयन्तम्। पतङ्गम्। शिरः। अपश्यम्। पथिभिरिति पथिऽभिः। सुगेभिरिति सुऽगेभिः। अरेणुभिरित्यरेणुऽभिः। जेहमानम्। पतत्रि॥१७॥

    यजुर्वेद - अध्याय » 29; मन्त्र » 17
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    पदार्थ -
    हे विद्वन्! मैं जैसे (मनसा) विज्ञान से (आरात्) निकट में (अवः) नीचे से (दिवा) आकाश के साथ (पतङ्गम्) सूर्य के प्रति (पतयन्तम्) चलते हुए (ते) आप के (आत्मानम्) आत्मास्वरूप को (अजानाम्) जानता हूँ और (अरेणुभिः) धूलिरहित निर्मल (सुगेभिः) सुखपूर्वक जिन में चलना हो, उन (पथिभिः) मार्गों से (जेहमानम्) प्रयत्न के साथ जाते हुए (पतत्रि) पक्षीवत् उड़ने वाले (शिरः) दूर से शिर के तुल्य गोलाकार लक्षित होते विमानादि यान को (अपश्यम्) देखता हूँ, वैसे आप भी देखिए॥१७॥

    भावार्थ - इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। हे मनुष्यो! तुम लोग सब से अतिवेग वाले शीघ्र चलाने हारे अग्नि के तुल्य अपने आत्मा को देखो, सम्प्रयुक्त किये अग्नि आदि के सहित यानों में बैठ के जल, स्थल और आकाश में प्रयत्न से जाओ आओ, जैसे शिर उत्तम है, वैसे विमान यान को उत्तम मानना चाहिए॥१७॥

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