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  • यजुर्वेद - अध्याय 5/ मन्त्र 41
    ऋषिः - आगस्त्य ऋषिः देवता - विष्णुर्देवता छन्दः - भूरिक् आर्षी अनुष्टुप्, स्वरः - गान्धारः
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    उ॒रु वि॑ष्णो॒ विक्र॑मस्वो॒रु क्षया॑य नस्कृधि। घृ॒तं घृ॑तयोने पिब॒ प्रप्र॑ य॒ज्ञप॑तिं तिर॒ स्वाहा॑॥४१॥

    स्वर सहित पद पाठ

    उ॒रु। वि॒ष्णो॒ऽइति॑ विष्णो। वि। क्र॒म॒स्व॒। उ॒रु। क्षया॑य। नः॒। कृ॒धि॒। घृ॒तम्। घृ॒त॒यो॒न॒ इति॑ घृतऽयोने। पि॒ब॒। प्रप्रेति॒ प्रऽप्र॑। य॒ज्ञप॑ति॒मिति॑ य॒ज्ञऽप॑तिम्। ति॒र॒। स्वाहा॑ ॥४१॥


    स्वर रहित मन्त्र

    उरु विष्णो विक्रमस्वोरु क्षयाय नस्कृधि । घृतङ्घृतयोने पिब प्रप्र यज्ञपतिन्तिर स्वाहा ॥


    स्वर रहित पद पाठ

    उरु। विष्णोऽइति विष्णो। वि। क्रमस्व। उरु। क्षयाय। नः। कृधि। घृतम्। घृतयोन इति घृतऽयोने। पिब। प्रप्रेति प्रऽप्र। यज्ञपतिमिति यज्ञऽपतिम्। तिर। स्वाहा॥४१॥

    यजुर्वेद - अध्याय » 5; मन्त्र » 41
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    Meaning -
    O learned person, mayest thou be conversant with all branches of knowledge, for the vast development of learning. Give us happiness. Drink thou the water, the precursor of which is lightning. Just as I make the worshipper overcome all obstacles, so shouldst thou be totally free from all ills, by the regular performance of Havan.

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