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  • यजुर्वेद - अध्याय 3/ मन्त्र 4
    ऋषिः - प्रजापतिर्ऋषिः देवता - अग्निर्देवता छन्दः - गायत्री, स्वरः - षड्जः
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    उप॑ त्वाग्ने ह॒विष्म॑तीर्घृ॒ताची॑र्यन्तु हर्यत। जु॒षस्व॑ स॒मिधो॒ मम॑॥४॥

    स्वर सहित पद पाठ

    उप॑। त्वा॒। अ॒ग्ने॒। ह॒विष्म॑तीः। घृ॒ताचीः॑। य॒न्तु॒। ह॒र्य्य॒त॒। जु॒षस्व॑। स॒मिध॒ऽइति॑ स॒म्ऽइधः॑। मम॑ ॥४॥


    स्वर रहित मन्त्र

    उप त्वाग्ने हविष्मतीर्घृताचीर्यन्तु हर्यत । जुषस्व समिधो मम ॥


    स्वर रहित पद पाठ

    उप। त्वा। अग्ने। हविष्मतीः। घृताचीः। यन्तु। हर्य्यत। जुषस्व। समिधऽइति सम्ऽइधः। मम॥४॥

    यजुर्वेद - अध्याय » 3; मन्त्र » 4
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    भाषार्थ -

    हे मनुष्यो ! जो (हर्यत) सुखप्रापक, कामना करने योग्य (अग्ने) अग्नि है वह ( मम) मुझ कार्यकर्त्ता की (समिधः) समिधादि सामग्री का (जुषस्व) सेवन करता है। जैसे (त्वा) उस अग्नि को ये समिधायें (उपयन्तु) प्राप्त करें वैसे इसमें तुम (हविष्मतीः) प्रशंसा के योग्य हविवाली (घृताचीः) घृत और जल को प्राप्त कराने वाली समिधाओं को प्रतिदिन चिनो ।। ३।४ ।।

    भावार्थ -

    मनुष्य, जब इस अग्नि में समिधायें और आहुतियाँ डालते हैं तब वह इन्हें परम सूक्ष्म करके वायु के साथ देशान्तर में पहुँचा कर, दुर्गन्ध आदि दोषों को दूर हटा कर सबको सुख प्रदान करता है, ऐसा जानो ॥ ३ ॥ ४ ॥

    भाष्यसार -

    १. अग्नि (भौतिक) कैसा है--डाली हुई समिधा और आहुति को परम सूक्ष्म करके वायु की सहायता से देशान्तर में पहुंचाने वाला, कामना करने के योग्य और काष्ठ आदि सामग्री को सेवन करने वाला है ।

    २. समिधा--समिधाओं में प्रशस्त हवि (आहुति) दी जाती है, ये समिधायें घृत रूप आहुति को प्राप्त करती हैं तथा जल को भी प्राप्त कराती हैं ।

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