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  • यजुर्वेद - अध्याय 3/ मन्त्र 61
    ऋषिः - वसिष्ठ ऋषिः देवता - रुद्रो देवता छन्दः - पङ्क्ति, स्वरः - पञ्चमः
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    ए॒तत्ते॑ रुद्राव॒सं तेन॑ प॒रो मूज॑व॒तोऽती॑हि। अव॑ततधन्वा॒ पिना॑कावसः॒ कृत्ति॑वासा॒ऽअहि॑ꣳसन्नः शि॒वोऽती॑हि॥६१॥

    स्वर सहित पद पाठ

    ए॒तत्। ते॒। रु॒द्र॒। अ॒व॒सम्। तेन॑। प॒रः। मूज॑वत॒ इति॒ मूज॑ऽवतः। अति॑। इ॒हि॒। अव॑ततध॒न्वेत्यव॑ततऽधन्वा। पिना॑कावस॒ इति॒ पिना॑कऽअवसः। कृत्ति॑वासा॒ इति॒ कृत्ति॑ऽवासाः। अहि॑ꣳसन्। नः॒। शि॒वः। अति॑। इ॒हि॒ ॥६१॥


    स्वर रहित मन्त्र

    एतत्ते रुद्रावसन्तेन परो मूजवतो तीहि । अवततधन्वा पिनाकावसः कत्तिवासा अहिँसन्नः शिवो तीहि ॥


    स्वर रहित पद पाठ

    एतत्। ते। रुद्र। अवसम्। तेन। परः। मूजवत इति मूजऽवतः। अति। इहि। अवततधन्वेत्यवततऽधन्वा। पिनाकावस इति पिनाकऽअवसः। कृत्तिवासा इति कृत्तिऽवासाः। अहिꣳसन्। नः। शिवः। अति। इहि॥६१॥

    यजुर्वेद - अध्याय » 3; मन्त्र » 61
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    भाषार्थ -

    हे (रुद्र) शूरवीर विद्वान् युद्धविद्या में चतुर शत्रुओं को रुलाने वाले सेनाध्यक्ष! आप (वततधन्वा) विशाल धनुष को धारण करने वाले (पिनाकावसः) शत्रुओं को पीसने वाले दण्डे की रक्षा करने वाले (कृत्तिवासाः) कृत्ति अर्थात् चर्म के समान दृढ़ वस्त्रों को धारण करने वाले (शिवः) सुखदायक और (पर:) उत्तम बल वाले होकर (मूजवतः) मूज अर्थात् घास दि से युक्त पर्वत के पार शत्रुओं को (तीहि) खदेड़ दो और जो (एतत्) यह (ते) आपका (वसम्) पालन-रक्षण वा स्वाम्यर्थ है (तेन) उस रक्षण आदि से (नः) हमारी (अहिंसन्) रक्षा करते हुए (अतीहि) हमें चहुँ ओर से प्राप्त हो।। ३ । ६१ ।।

    भावार्थ -

    हे मनुष्यो ! तुम लोग जातशत्रु होकर, शत्रुरहित राज्य करके, अस्त्र-शस्त्रों को बनाकर दुष्टों को दण्ड और हिंसा से श्रेष्ठों का पालन करो ।

    जिससे-कभी दुष्ट लोग सुखी और श्रेष्ठ लोग दुःखी न रहें ।। ३ । ६१ ।।

    भाष्यसार -

    रुद्र (शूरवीर) के कर्म–रुद्र अर्थात् शूरवीर विद्वान् युद्ध विद्या में कुशल सेनाध्यक्ष होता है। वह अजातशत्रु रुद्र धनुष को विस्तृत करने वाला, पिनाक आदि सब शस्त्र-अस्त्रों से श्रेष्ठों की रक्षा करने वाला, दृढ़ वस्त्रों को धारण करने वाला, श्रेष्ठों को सुख देने वाला उत्तम सामर्थ्य वाला होता है। वह राज्य को शत्रुओं से रहित कर देता है। दुष्टों को दण्ड देता है, उनका हिंसन करता है, श्रेष्ठों का पालन करता है। रुद्र की अध्यक्षता में दुष्ट लोग सुखी और श्रेष्ठ लोग दुःखी नहीं रह सकते ।। ३ । ६१ ।।

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