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  • यजुर्वेद - अध्याय 3/ मन्त्र 6
    ऋषिः - सर्प्पराज्ञी कद्रूर्ऋषिः देवता - अग्निर्देवता छन्दः - निचृत् गायत्री, स्वरः - षड्जः
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    आयं गौः पृश्नि॑रक्रमी॒दस॑दन् मा॒तरं॑ पु॒रः। पि॒तरं॑ च प्र॒यन्त्स्वः॑॥६॥

    स्वर सहित पद पाठ

    आ। अ॒यम्। गौः। पृश्निः॑। अ॒क्र॒मी॒त्। अस॑दत्। मा॒तर॑म्। पु॒रः। पि॒तर॑म्। च॒। प्र॒यन्निति॑ प्र॒ऽयन्। स्व॒रिति॒ स्वः᳕ ॥६॥


    स्वर रहित मन्त्र

    आयङ्गौः पृश्निरक्रमीदसदन्मातरम्पुरः पितरञ्च प्रयन्त्स्वः ॥


    स्वर रहित पद पाठ

    आ। अयम्। गौः। पृश्निः। अक्रमीत्। असदत्। मातरम्। पुरः। पितरम्। च। प्रयन्निति प्रऽयन्। स्वरिति स्वः॥६॥

    यजुर्वेद - अध्याय » 3; मन्त्र » 6
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    भाषार्थ -

    (आयम्) यह प्रत्यक्ष ( गौः) गति करने वाला भूगोल (स्व:) आदित्य (पितरम्) रक्षक के (पुरः) चारों ओर (प्रयत्) गति करता हुआ (मातरम्) अपने उत्पत्ति-निमित्त जल की भी गति करता हुआ (पृश्निः) अन्तरिक्ष में (आक्रमीत्) चारों ओर घूमता है तथा [असदत्] अपनी कक्ष्या में भी घूमता है ।। ३ । ६॥

    भावार्थ -

    जल और अग्नि के निमित्त से उत्पन्न हुआ यह पृथिवी का गोला आकाश में अपनी कक्ष्या में आकर्षण शक्ति से रक्षक सूर्य के चारों ओर प्रतिक्षण घूमता है, इसलिये दिन, रात, शुक्ल पक्ष, कृष्ण पक्ष, ऋतु, अयन आदि काल-विभाग क्रमशः बनते हैं। ऐसा सब मनुष्यों को जानना योग्य है ।। ३। ६ ।।

    भाष्यसार -

    १. पृथिवी की उत्पत्ति--पृथिवी का अग्नि पिता है और जल माता है यह अग्नि और जल से उत्पन्न होती है।

    २. पृथिवी भ्रमण--सूर्य पृथिवी का पिता है, रक्षक है, इसलिये पृथिवी आकर्षण शक्ति से आकाश में सूर्य के चारों ओर अपनी कक्ष्या में भ्रमण करती है। पृथिवी के भ्रमण का निमित्त अग्नि (सूर्य) है। सूर्य के चारों ओर पृथिवी के भ्रमण से ही दिन, रात, शुक्ल पक्ष, कृष्ण पक्ष, छः ऋतुयें तथा उत्तरायण एवं दक्षिणायन काल विभाग बनते हैं ।

    अन्यत्र व्याख्यात -

     महर्षि ने सत्यार्थप्रकाश (अष्टम समुल्लास) में इम मन्त्र की व्याख्या में इस प्रकार लिखा है--"अर्थात् यह भूगोल जल के सहित सूर्य के चारों ओर घूमता जाता है, इसलिये भूमि घूमा करती है"।

     

    इस मन्त्र की व्याख्या ऋग्वेदादिभाष्य भूमिका (पृथिव्यादिलोकभ्रमणविषय) में इस प्रकार की गई है—"(आयं गौः) गौ नाम है--पृथिवी, सूर्य, चन्द्रमादि लोकों का, वे सब अपनी-अपनी परिधि में अंतरिक्ष के मध्य में सदा घूमते रहते हैं, परन्तु जो जल है सो पृथिवी की माता के समान है, क्योंकि पृथिवी जल के परमाणुओं के साथ अपने परमाणुओं के संयोग से ही उत्पन्न हुई है, और मेघमण्डल के जल के बीच में गर्भ के समान सदा रहती है और सूर्य उसके पिता के समान है, इससे सूर्य के चारों ओर घूमती है। इसी प्रकार सूर्य का पिता वायु और आकाश माता तथा चन्द्रमा का अग्नि पिता और जल माता, उनके प्रति वे घूमते हैं। इसी प्रकार से सब लोक अपनी-अपनी कक्षा में सदा घूमते हैं। इस विषय का संस्कृत में निघंटु और निरुक्त का प्रमाण लिखा है, उसको देख लेना। इसी प्रकार सूत्रात्मा जो वायु है उसके आधार और आकर्षण से सब लोकों का धारण और भ्रमण होता है तथा परमेश्वर अपने सामर्थ्य से पृथिवी आदि सब लोकों का धारण, भ्रमण और पालन कर रहा है।"

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