यजुर्वेद - अध्याय 9/ मन्त्र 17
ऋषिः - नाभानेदिष्ठ ऋषिः
देवता - बृहस्पतिर्देवता
छन्दः - जगती,
स्वरः - निषादः
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ते नो॒ऽअर्व॑न्तो हवन॒श्रुतो॒ हवं॒ विश्वे॑ शृण्वन्तु वा॒जिनो॑ मि॒तद्र॑वः। स॒ह॒स्र॒सा मे॒धसा॑ता सनि॒ष्यवो॑ म॒हो ये धन॑ꣳ समि॒थेषु॑ जभ्रि॒रे॥१७॥
स्वर सहित पद पाठते। नः॒। अर्व॑न्तः। ह॒व॒न॒श्रुत॒ इति॑ हवन॒ऽश्रुतः॑। हव॑म्। विश्वे॑ शृ॒ण्व॒न्तु॒। वा॒जि॑नः। मितद्र॑व॒ इति॑ मि॒तऽद्र॑वः। स॒ह॒स्र॒सा इति॑ स॒हस्र॒ऽसाः। मे॒धसा॒तेति॑ मे॒धऽसा॑ता। स॒नि॒ष्यवः॑। स॒हः। ये। धन॑म्। स॒मि॒थेष्विति॑ सम्ऽइ॒थेषु॒। ज॒भ्रि॒रे ॥१७॥
स्वर रहित मन्त्र
ते नोऽअर्वन्तो हवनश्रुतो हवँविश्वे शृण्वन्तु वाजिनो मितद्रवः । सहस्रसा मेधसाता सनिष्यवो महो ये धनँ समिथेषु जभ्रिरे ॥
स्वर रहित पद पाठ
ते। नः। अर्वन्तः। हवनश्रुत इति हवनऽश्रुतः। हवम्। विश्वे शृण्वन्तु। वाजिनः। मितद्रव इति मितऽद्रवः। सहस्रसा इति सहस्रऽसाः। मेधसातेति मेधऽसाता। सनिष्यवः। सहः। ये। धनम्। समिथेष्विति सम्ऽइथेषु। जभ्रिरे॥१७॥
विषय - प्रजाजन अपनी रक्षा के लिये ही कर देवें और इसीलिये राजा लोग उसे ग्रहण करें, अन्यथा नहीं, यह उपदेश किया है॥
भाषार्थ -
जो(अर्वन्तः) ज्ञानवान्, (हवनश्रुतः) ग्रहण करने योग्य शास्त्रों को सुनने वाले (वाजिनः) उत्तम प्रज्ञा वाले, (मितद्रवः) शास्त्र द्वारा प्रमाणित विषय को प्राप्त करने वाले, (सहस्रसाः) नाना विद्या-विषयों का सेवन करने वाले, (सनिष्यवः) अपने उचित भाग की कामना करने वाले राजा लोग हैं वे(मेधसाता) जिनमें सङ्गमों का दान किया जाता है उन (समिथेषु) संग्रामों में (नः) हमारे (महः) महान् (धनम्) धन [कर] को (जभ्रिरे) धारण करें, और (ते) वे (विश्वे) सब विद्वान राजा लोग हमारे (हवम्) अध्ययन-अध्यापन से उत्पन्न बोध को तथा वादी प्रतिवादियों के विवाद को (शृण्वन्तु) सुना करें ॥ ९ । १७ ॥
भावार्थ - जो ये राजपुरुष हमसे कर ग्रहण करते हैं, वे हमारी रक्षा करें, अन्यथा कर ग्रहण न करें, और हम भी उन्हें कर न देवें। अतः प्रजा की रक्षा के लिये तथा दुष्ट शत्रुओं के साथ युद्ध करने के लिये ही कर दिया जाता है, अन्य कार्य के लिये नहीं, यह निश्चय है । ९। १७॥
प्रमाणार्थ -
(मेधसाता) यहाँ सप्तमी बहुवचन का ‘सुपां सुलुक्०' (अ०७ । १ । ३९) इस सूत्र से 'डा' आदेश है। (सनिष्यवः) यहाँ लालसा अर्थ में 'सनि' शब्द से 'क्यच्' प्रत्यय है, 'सु' का लुक् होने पर [क्याच्छन्दसि अ० ३ । २ । १७० सूत्र से] 'उ' प्रत्यय है। (समिथेषु) 'समिथ' शब्द निघं० (२ । १७) में संग्राम नामों में पढ़ा है। (जभ्रिरे) यहां वर्ण-व्यत्यय से अभ्यास के वकार को जकार है। इस मन्त्र की व्याख्या शत० (५।१।५ । २३) में की गई है ॥९। १७॥
भाष्यसार - कर-प्रदान--जो राजपुरुष-ज्ञानी, ग्रहण करने योग्य शास्त्रों का श्रवण करने वाले, उत्तम प्रज्ञा वाले, शास्त्र द्वारा प्रमाणित विषय को ग्रहण करने वाले, नाना विद्याओं का सेवन करने वाले, अपने उचित भाग की कामना करने वाले हैं उन्हें प्रजाजन अपनी रक्षा के लिये एवं दुष्ट शत्रुओं के साथ युद्ध करने के लिये ही कर प्रदान करें। राजपुरुष भी प्रजा की रक्षा के लिये ही कर ग्रहण करें । विद्वान् राजपुरुष प्रजा के पठन-पाठन का निरक्षण किया करें तथा वादी-प्रतिवादी के विवाद को भी सुना करें ॥ ९ । १७॥
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