यजुर्वेद - अध्याय 9/ मन्त्र 35
ऋषिः - वरुण ऋषिः
देवता - विश्वेदेवा देवताः
छन्दः - विराट् उत्कृति
स्वरः - षड्जः
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ए॒ष ते॑ निर्ऋते भा॒गस्तं जु॑षस्व॒ स्वाहा॒ऽग्निने॑त्रेभ्यो दे॒वेभ्यः॑ पुरः॒सद्भ्यः॒ स्वाहा॑ य॒मने॑त्रेभ्यो दे॒वेभ्यो॑ दक्षिणा॒सद्भ्यः॒ स्वाहा॑ वि॒श्वदे॑वनेत्रेभ्यो दे॒वेभ्यः॑ पश्चा॒त्सद्भ्यः॒ स्वाहा॑ मि॒त्रावरु॑णनेत्रेभ्यो वा म॒रुन्ने॑त्रेभ्यो वा दे॒वेभ्य॑ऽउत्तरा॒सद्भ्यः॒ स्वाहा॒ सोम॑नेत्रेभ्यो दे॒वेभ्य॑ऽउपरि॒सद्भ्यो॒ दुव॑स्वद्भ्यः॒ स्वाहा॑॥३५॥
स्वर सहित पद पाठए॒षः। ते॑ नि॒र्ऋ॒त इति॑ निःऽऋते। भा॒गः। तम्। जु॒ष॒स्व॒। स्वाहा॑। अ॒ग्निने॑त्रेभ्य॒ इत्य॒ग्निऽने॑त्रेभ्यः। दे॒वेभ्यः॑। पु॒रः॒सद्भ्य॒ इति॑ पुरःसत्ऽभ्यः॑। स्वाहा॑। य॒मने॑त्रेभ्य॒ इति॑ य॒मऽने॑त्रेभ्यः। दे॒वेभ्यः॑। द॒क्षि॒णा॒सद्भ्य॒ इति॑ दक्षिणा॒सत्ऽभ्यः॑। स्वाहा॑। वि॒श्वदे॑वनेत्रेभ्य॒ इति॑ वि॒श्वदे॑वऽनेत्रेभ्यः। दे॒वेभ्यः॑। प॒श्चात्सद्भ्य॒ इति॑ पश्चा॒त्सत्ऽभ्यः॑। स्वाहा॑। मि॒त्रावरु॑णनेत्रेभ्य॒ इति॑ मि॒त्रावरु॑णऽनेत्रेभ्यः। वा॒। म॒रुन्ने॑त्रेभ्य॒ इति॑ म॒रुत्ऽने॑त्रेभ्यः। वा॒। दे॒वेभ्यः॑। उ॒त्त॒रा॒सद्भ्य॒ इत्यु॑त्तरा॒सत्ऽभ्यः॑। स्वाहा॑। सोम॑नेत्रेभ्य॒ इति॑ सोम॑ऽनेत्रेभ्यः। दे॒वेभ्यः॑। उ॒प॒रि॒सद्भ्य॒ इत्यु॑परि॒सत्ऽभ्यः॑। दुव॑स्वद्भ्य॒ इति॑ दुव॑स्वत्ऽभ्यः। स्वाहा॑ ॥३५॥
स्वर रहित मन्त्र
एष ते निरृते भागस्तञ्जुषस्व स्वाहाग्निनेत्रेभ्यो देवेभ्यः पुरःसद्भ्यः स्वाहा यमनेत्रेभ्यो देवेभ्यो दक्षिणासद्भ्यः स्वाहा विश्वदेवनेत्रेभ्यो देवेभ्यो पश्चात्सद्भ्यः स्वाहा मित्रावरुणनेत्रेभ्यो वा मरुन्नेत्रेभ्यो वा देवेभ्य उत्तरासद्भ्यः स्वाहा सोमनेत्रेभ्यो देवेभ्य ऽउपरिसद्भ्यो दुवस्वद्भ्यः स्वाहा ॥
स्वर रहित पद पाठ
एषः। ते निर्ऋत इति निःऽऋते। भागः। तम्। जुषस्व। स्वाहा। अग्निनेत्रेभ्य इत्यग्निऽनेत्रेभ्यः। देवेभ्यः। पुरःसद्भ्य इति पुरःसत्ऽभ्यः। स्वाहा। यमनेत्रेभ्य इति यमऽनेत्रेभ्यः। देवेभ्यः। दक्षिणासद्भ्य इति दक्षिणासत्ऽभ्यः। स्वाहा। विश्वदेवनेत्रेभ्य इति विश्वदेवऽनेत्रेभ्यः। देवेभ्यः। पश्चात्सद्भ्य इति पश्चात्सत्ऽभ्यः। स्वाहा। मित्रावरुणनेत्रेभ्य इति मित्रावरुणऽनेत्रेभ्यः। वा। मरुन्नेत्रेभ्य इति मरुत्ऽनेत्रेभ्यः। वा। देवेभ्यः। उत्तरासद्भ्य इत्युत्तरासत्ऽभ्यः। स्वाहा। सोमनेत्रेभ्य इति सोमऽनेत्रेभ्यः। देवेभ्यः। उपरिसद्भ्य इत्युपरिसत्ऽभ्यः। दुवस्वद्भ्य इति दुवस्वत्ऽभ्यः। स्वाहा॥३५॥
विषय - कैसा मनुष्य चक्रवर्ती राज्य को सेवन करने योग्य होता है, इस विषय का उपदेश किया है॥
भाषार्थ -
हे (निर्ऋते) नितान्त सत्य आचरण करने वाले राजन् ! (ते) आपका जो (एषः) यह पूर्व और आगे प्रतिपादित (भाग:) सेवन करने योग्य न्याय है, उसे (अग्निनेत्रेभ्यः) अग्नि के प्रकाश के समान नेत्रनीति वाले (देवेभ्यः) धार्मिक विद्वानों के लिये (स्वाहा) सत्य वाणी को, और--(पुरःसद्भ्यः) जो सभा वा राष्ट्र में पूर्व विराजमान (देवेभ्यः) विद्वान हैं उनके लिये (स्वाहा) धर्मयुक्त कर्म को, और-
(यमनेत्रेभ्यः) यम=वायु की नीति के समान जिनकी नीति है उन (दक्षिणणासद्भ्यः) दक्षिणा दिशा में प्रबन्ध के लिये विराजमान (देवेभ्यः) विद्वानों के लिये (स्वाहा) दान कर्म को, और-
(विश्वदेवनेत्रेभ्यः) सब विद्वानों के तुल्य जिनकी नीति है, उन (पश्चात्सद्भ्यः) पश्चिम दिशा में विराजमान (देवेभ्यः) दिव्य सुखों को देने वाले विद्वानों के लिये (स्वाहा) उत्साहवर्द्धक वाणी को, और--
(मित्रावरुणनेत्रेभ्यः) प्राण और अपान के तुल्य (वा) अथवा (मरुन्नेत्रेभ्यः) मरुत्=ऋत्विजों अथवा प्रजा के श्रेष्ठ जनों की नीति के समान जिनकी नीति है उनके लिये अथवा (उत्तरासद्भ्यः) जो उत्तर दिशा में विराजमान हैं उन (देवेभ्यः) दिव्य न्याय को प्रकाशित करने वाले विद्वानों के लिये (स्वाहा) दूतकर्म की कुशलता को, और--
(सोमनेत्रेभ्यः) सोम=चन्द्रकी ऐश्वर्यवती नीति के समान जिनकी नीति है उन (उपरिसद्भ्यः) सब के ऊपर विराजमान (दुवस्यद्भ्यः) विद्या, विनय, धर्म और ईश्वर का सेवन करने वाले (देवेभ्यः) सकल विद्याओं के प्रचारक विद्वानों के लिये (स्वाहा) प्राप्त जनों की वाणी को प्राप्त करके, आप धर्मपूर्वक राज्य का सदा (जुषस्व) सेवन कीजिये ॥ ९। ३५॥
भावार्थ - हे सभाध्यक्ष राजन् ! जब आप सब ओर से श्रेष्ठ विद्वानों से घिरे हुए सुशिक्षित, सभा करने वाले, सेना के रक्षक, उत्तम सहायक होकर सनातनी वेदोक्त राजधर्म की नीति से प्रजा का पालन करें, तभी इस लोक और परलोक में सुख को प्राप्त कीजिये । यदि आप इसके विरुद्ध आचरण करेंगे तो सुख कहाँ ? क्योंकि मूर्ख जिसके सहायक हैं वह सुख से नहीं बढ़ता, और विद्वानों के उपदेश का अनुगामी कभी सुख को नहीं छोड़ता, अतः हमारा राजा सदा विद्या, धर्म और आप्त जनों के सहाय से राज्य की रक्षा करें। जिसकी सभा वा राज्य में पूर्ण विद्या वाले धार्मिक विद्वान होते हैं, मिथ्यावादी व्यभिचारी, अजितेन्द्रिय, कठोर वचन बोलने वाले, अन्यायकारी, चोर और डाकू नहीं होते और जो स्वयं भी ऐसा है वही चक्रवर्ती राज्य कर सकता है; इससे विरुद्ध व्यक्ति राज्य नहीं कर सकता, ऐसा समझें ॥ ९। ३५॥
प्रमाणार्थ -
इस मन्त्र की व्याख्या शत० (५।२।३ ।३-१० ॥३।२।४।१-५) में की गई है ॥ १ । ३५ ॥
भाष्यसार - कैसा मनुष्य साम्राज्य की सेवा के योग्य होता है--नितान्त सत्य का आचरण करने वाला राजा, सेवन करने योग्य न्याय को तथा सत्य वाणी को नीतिमान धार्मिक विद्वानों से, सभा वा राज्य में विद्यमान विद्वानों से धर्माचरण को, दानकर्म को, उत्साह को बढ़ाने वाली वाणी को, दूतकर्म सम्बन्धी कुशलता को, प्राप्त जनों की वाणी को प्राप्त करके धर्माचरण से राज्य की सेवा कर सकता है। विद्वान्बैठने की दिशा १. अग्निनेत्र विद्वान्पुरःसद् (पूर्व) २. यमनेत्र विद्वान्दक्षिणासद् (दक्षिण) ३. विश्वदेवनेत्र विद्वान्पश्चात्सद् (पश्चिम) ४. मित्रावरुणनेत्र\मरुन्नेत्र विद्वान् उत्तरासद् (उत्तर) ५.सोमनेत्र विद्वान् उपरिसद् (ऊपर की दिशा) ॥ ९। ३५ ॥
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