यजुर्वेद - अध्याय 9/ मन्त्र 30
दे॒वस्य॑ त्वा सवि॒तुः प्र॑स॒वेऽश्विनो॑र्बा॒हुभ्यां॑ पू॒ष्णो हस्ता॑भ्याम्। सर॑स्वत्यै वा॒चो य॒न्तुर्य॒न्त्रिये॑ दधामि॒ बृह॒स्पते॑ष्ट्वा॒ साम्रा॑ज्येना॒भिषि॑ञ्चाम्यसौ॥३०॥
स्वर सहित पद पाठदे॒वस्य॑। त्वा॒। स॒वि॒तुः। प्र॒स॒व इति॑ प्रऽस॒वे। अ॒श्विनोः॑। बा॒हुभ्या॒मिति॑ बा॒हुऽभ्याम्। पू॒ष्णः। हस्ता॑भ्याम्। सर॑स्वत्यै। वा॒चः। य॒न्तुः। य॒न्त्रिये॑। द॒धा॒मि॒। बृह॒स्पतेः॑। त्वा॒। साम्रा॑ज्ये॒नेति॒ साम्ऽरा॑ज्येन। अ॒भि। सि॒ञ्चा॒मि॒। अ॒सौ॒ ॥३०॥
स्वर रहित मन्त्र
देवस्य त्वा सवितुः प्रसवे श्विनोर्बाहुभ्याम्पूष्णो हस्ताभ्याम् । सरस्वत्यै वाचो यन्तुर्यन्त्रिये दधामि बृहस्पतेष्ट्वा साम्राज्येनाभि षिञ्चाम्यसौ ॥
स्वर रहित पद पाठ
देवस्य। त्वा। सवितुः। प्रसव इति प्रऽसवे। अश्विनोः। बाहुभ्यामिति बाहुऽभ्याम्। पूष्णः। हस्ताभ्याम्। सरस्वत्यै। वाचः। यन्तुः। यन्त्रिये। दधामि। बृहस्पतेः। त्वा। साम्राज्येनेति साम्ऽराज्येन। अभि। सिञ्चामि। असौ॥३०॥
विषय - फिर कहाँ कैसे व्यक्ति को राजा बनावें, इस विषय का उपदेश किया है ॥
भाषार्थ -
हे सब शुभ गुण, कर्म, स्वभावों से युक्त विद्वान् सम्राट्! (असौ) वह पूर्वोक्त मैं--(सवितु:) सकल जगत् के उत्पादक, (देवस्य) प्रकाशमान जगदीश्वर की (प्रसवे) सृष्टि में (सरस्वत्यै) विज्ञान की सुशिक्षा से युक्त (वाचः) वेदवाणी से, (अश्विनोः) सूर्य और चन्द्रमा के बल और आकर्षण के समान (बाहुभ्याम्) अपनी भुजाओं से, (पृष्ठ:) पोषक वायु के धारण और पोषण के समान (हस्ताभ्याम्) अपने हाथों से (त्वा) आपको (दधामि) धारण करता हूँ। और--
(यन्तुः) नियन्ता (बृहस्पतेः) परम विद्वान के (यन्त्रिये) शिल्प विद्या से सिद्ध यन्त्रों को योग्यता- पूर्वक निर्माण करने के लिये (साम्राज्येन) सम्राट् भाव से (त्वा) आपके (अभिषिञ्चामि) सम्मुखहोकर सुगन्धित जल से अभिषेक करता है ॥ ९ । ३० ॥
भावार्थ - इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमा अलङ्कार है । मनुष्य--ईश्वर प्रेमी, बल, वीर्य और पुष्टि से युक्त, चतुर, सत्यवादी, जितेन्द्रिय, धार्मिक, प्रजापालन में समर्थ विद्वान् को परीक्षापूर्वक सभा का अधिष्ठाता अभिषिक्त करके राजधर्म की उन्नति करें॥९ । ३० ॥
प्रमाणार्थ -
(सरस्वत्यै) यहाँ षष्ठी के अर्थ में चतुर्थी विभक्ति है। इस मन्त्र की व्याख्या शत० (५।२। २ । १२-१५) में की गई है ॥९। ३० ॥
भाष्यसार - कहाँ कैसे पुरुष को राजा बनावें--सकल जगत् के उत्पादक जगदीश्वर की इस सृष्टि में सब शुभ गुण, कर्म, स्वभाव से युक्त विद्वान् पुरुष को राजा बनावें। वह राजा ईश्वर का प्रेमी, विज्ञान और सुशिक्षा से युक्त, वेदवाणी का ज्ञाता, सूर्य और चन्द्रमा के बल और आकर्षण के समान बलवान् भुजाओं वाला, पोषक वायु के धारण और पोषक रूप हाथों के समान पुष्टियुक्त हो। प्रत्येक राजकार्य में चतुर हो, जो प्रजा का नियन्ता बन सके, सत्यवादी, जितेन्द्रिय, धार्मिक, बृहस्पति अर्थात् परम विद्वान हो, प्रजा के पालन में समर्थ हो, शिल्प से सिद्ध यन्त्रों का योग्य निष्पादन करने वाला हो । उसे परीक्षापूर्वक सभा का अधिष्ठाता सम्राट मानें और उसका राज्याभिषेक करके राजधर्म की उन्नति करें ॥ ९। ३० ॥
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