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  • यजुर्वेद - अध्याय 38/ मन्त्र 1
    ऋषिः - आथर्वण ऋषिः देवता - सविता देवता छन्दः - उष्णिक् स्वरः - ऋषभः
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    दे॒वस्य॑ त्वा सवि॒तुः प्र॑स॒वेऽश्विनो॑र्बा॒हुभ्यां॑ पू॒ष्णो हस्ता॑भ्याम्।आ द॒देऽदि॑त्यै॒ रास्ना॑ऽसि॥१॥

    स्वर सहित पद पाठ

    दे॒वस्य॑। त्वा॒। स॒वि॒तुः। प्र॒स॒व इति॑ प्रस॒वे। अ॒श्विनोः॑। बा॒हुभ्या॒मिति॑ बा॒हुऽभ्या॑म्। पू॒ष्णः। हस्ता॑भ्याम् ॥ आ। द॒दे॒। अदि॑त्यै। रास्ना॑। अ॒सि॒ ॥१ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    देवस्य त्वा सवितुः प्रसवे श्विनोर्बाहुभ्याम्पूष्णो हस्ताभ्याम् । आ ददेदित्यै रास्नासि ॥


    स्वर रहित पद पाठ

    देवस्य। त्वा। सवितुः। प्रसव इति प्रसवे। अश्विनोः। बाहुभ्यामिति बाहुऽभ्याम्। पूष्णः। हस्ताभ्याम्॥ आ। ददे। अदित्यै। रास्ना। असि॥१॥

    यजुर्वेद - अध्याय » 38; मन्त्र » 1
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    भावार्थ - हे स्रिये ! सूर्य भूगोलाचा स्वीकार करतो, प्राण शरीराचा स्वीकार करतो व अध्यापक उपदेशक जसा सत्याचा स्वीकार करतात तसा मी तुझा स्वीकार करतो. तू निरंतर अनुकूल सुख देणारी असावीस.

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