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  • यजुर्वेद - अध्याय 38/ मन्त्र 27
    ऋषिः - दीर्घतमा ऋषिः देवता - यज्ञो देवता छन्दः - पङ्क्तिः स्वरः - पञ्चमः
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    मयि॒ त्यदि॑न्द्रि॒यं बृ॒हन्मयि॒ दक्षो॒ मयि॒ क्रतुः॑।घ॒र्मस्त्रि॒शुग्वि रा॑जति वि॒राजा॒ ज्योति॑षा स॒ह ब्रह्म॑णा॒ तेज॑सा स॒ह॥२७॥

    स्वर सहित पद पाठ

    मयि॑। त्यत्। इ॒न्द्रि॒यम्। बृ॒हत्। मयि॑। दक्षः॑। मयि॑। क्रतुः॑ ॥ घ॒र्मः। त्रि॒शुगिति॑ त्रि॒ऽशुक्। वि। रा॒ज॒ति॒। वि॒राजेति॑ वि॒ऽराजा॑। ज्योति॑षा। स॒ह। ब्रह्म॑णा। तेज॑सा। स॒ह ॥२७ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    मयि त्यदिन्द्रियम्बृहन्मयि दक्षो मयि क्रतुः । घर्मस्त्रिशुग्वि राजति विराजा ज्योतिषा सह ब्रह्मणा तेजसा सह ॥


    स्वर रहित पद पाठ

    मयि। त्यत्। इन्द्रियम्। बृहत्। मयि। दक्षः। मयि। क्रतुः॥ घर्मः। त्रिशुगिति त्रिऽशुक्। वि। राजति। विराजेति विऽराजा। ज्योतिषा। सह। ब्रह्मणा। तेजसा। सह॥२७॥

    यजुर्वेद - अध्याय » 38; मन्त्र » 27
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    भावार्थ - या मंत्रात वाचकलुप्तोपमालंकार आहे. हे माणसांनो ! जसे अग्नी, विद्युत व सूर्य या तीन रूपांनी जग प्रकाशित होते. तसे उत्तम बल, कर्म, बुद्धी धर्माने प्राप्त केलेले धन व जितेंद्रियता यामुळे माणसांना महान सुख प्राप्त होते.

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