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  • यजुर्वेद - अध्याय 8/ मन्त्र 37
    ऋषिः - विवस्वान् ऋषिः देवता - सम्राड्माण्डलिकौ राजानौ देवते छन्दः - साम्नी त्रिष्टुप्,विराट आर्ची त्रिष्टुप्, स्वरः - धैवतः
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    इन्द्र॑श्च स॒म्राड् वरु॑णश्च॒ राजा॒ तौ ते॑ भ॒क्षं च॑क्रतु॒रग्र॑ऽए॒तम्। तयो॑र॒हमनु॑ भ॒क्षं भ॑क्षयामि॒ वाग्दे॒वी जु॑षा॒णा सोम॑स्य तृप्यतु स॒ह प्रा॒णेन॒ स्वाहा॑॥३७॥

    स्वर सहित पद पाठ

    इन्द्रः॑। च॒। स॒म्राडिति॑ स॒म्ऽराट्। वरु॑णः। च॒। राजा॑। तौ। ते॒। भ॒क्षम्। च॒क्र॒तुः। अग्रे॑। ए॒तम्। तयोः॑। अ॒हम्। अनु॑। भ॒क्षम्। भ॒क्ष॒या॒मि॒। वाक्। दे॒वी। जु॒षा॒णा। सोम॑स्य। तृ॒प्य॒तु॒। स॒ह। प्रा॒णेन॑। स्वाहा॑ ॥३७॥


    स्वर रहित मन्त्र

    इन्द्रश्च सम्राड्वरुणश्च राजा तौ ते भक्षञ्चक्रतुरग्रेतम् । तयोरहमनु भक्षम्भक्षयामि वाग्देवी जुषाणा सोमस्य तृप्यतु सह प्राणेन स्वाहा ॥


    स्वर रहित पद पाठ

    इन्द्रः। च। सम्राडिति सम्ऽराट्। वरुणः। च। राजा। तौ। ते। भक्षम्। चक्रतुः। अग्रे। एतम्। तयोः। अहम्। अनु। भक्षम्। भक्षयामि। वाक्। देवी। जुषाणा। सोमस्य। तृप्यतु। सह। प्राणेन। स्वाहा॥३७॥

    यजुर्वेद - अध्याय » 8; मन्त्र » 37
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    भावार्थ - प्रजेमध्ये दोन प्रकारचे राजे असतात. एक चक्रवर्ती सम्राट व दुसरा मांडलिक राजा होय. या दोन्ही प्रकारच्या राजांनी उत्कृष्ट न्याय, नम्रता, सुशीलता व वीरता इत्यादी गुणांनी चांगल्या प्रकारे प्रजेचे रक्षण करावे. प्रजेकडून यथायोग्य कर घ्यावा. सर्व व्यवहार करताना विद्येची वृद्धी करावी. सत्याने बोलावे व चालावे. धर्म, अर्थ व काम यांनी स्वतः संतुष्ट व्हावे व प्रजेलाही संतुष्ट करावे. आपत्काळात राजाने प्रजेचे रक्षण करून परस्परांना आनंदित करावे.

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