Loading...

मन्त्र चुनें

  • यजुर्वेद का मुख्य पृष्ठ
  • यजुर्वेद - अध्याय 8/ मन्त्र 63
    ऋषिः - कश्यप ऋषिः देवता - यज्ञो देवता छन्दः - स्वराट आर्षी गायत्री, स्वरः - षड्जः
    1

    आ प॑वस्व॒ हिर॑ण्यव॒दश्वव॑वत् सोम वी॒रव॑त्। वाजं॒ गोम॑न्त॒माभ॑र॒ स्वाहा॑॥६३॥

    स्वर सहित पद पाठ

    आ। प॒व॒स्व॒। हिर॑ण्यव॒दिति॒ हिर॑ण्यऽवत्। अश्व॑व॒दित्यश्व॑ऽवत्। सो॒म॒। वी॒रव॒दिति॑ वी॒रऽव॑त्। वाज॑म्। गोम॑न्त॒मिति॒ गोऽम॑न्तम्। आ। भ॒र॒। स्वाहा॑ ॥६३॥


    स्वर रहित मन्त्र

    आपवस्व हिरण्यवदश्ववत्सोम वीरवत् । वाजङ्गोमन्तमाभर स्वाहा ॥


    स्वर रहित पद पाठ

    आ। पवस्व। हिरण्यवदिति हिरण्यऽवत्। अश्ववदित्यश्वऽवत्। सोम। वीरवदिति वीरऽवत्। वाजम्। गोमन्तमिति गोऽमन्तम्। आ। भर। स्वाहा॥६३॥

    यजुर्वेद - अध्याय » 8; मन्त्र » 63
    Acknowledgment

    भावार्थ - माणसांनी आपल्या पुरुषार्थाने सुवर्ण इत्यादी धनाचा संग्रह करावा. घोडे वगैरे पशूंना पाळावे. नंतर वीर पुरुषांना जवळ करावे. जोपर्यंत या गोष्टी नसतात तोपर्यंत गृहस्थाश्रमरूपी यज्ञ परिपूर्ण होत नाही. त्यासाठी सर्वांनी पुरुषार्थाने गृहस्थाश्रम उन्नत करावा.

    इस भाष्य को एडिट करें
    Top