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  • यजुर्वेद - अध्याय 1/ मन्त्र 10
    ऋषिः - परमेष्ठी प्रजापतिर्ऋषिः देवता - सविता देवता छन्दः - भूरिक् बृहती, स्वरः - मध्यमः
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    दे॒वस्य॑ त्वा सवि॒तुः प्र॑स॒वेऽश्विनो॑र्बा॒हुभ्यां॑ पू॒ष्णो हस्ता॑भ्याम्। अ॒ग्नये॒ जुष्टं॑ गृह्णाम्य॒ग्नीषोमा॑भ्यां॒ जुष्टं॑ गृह्णामि॥१०॥

    स्वर सहित पद पाठ

    दे॒वस्य॑। त्वा॒। सवि॒तुः। प्र॒स॒व इति॑ प्रऽस॒वे। अ॒श्विनोः॑। बा॒हुभ्या॒मिति॑ बा॒हुभ्या॑म्। पू॒ष्णः। हस्ता॑भ्याम्। अ॒ग्नये॑। जुष्ट॑म्। गृ॒ह्णा॒मि॒। अ॒ग्नीषोमा॑भ्याम्। जुष्ट॑म्। गृ॒ह्णा॒मि॒ ॥१०॥


    स्वर रहित मन्त्र

    देवस्य त्वा सवितुः प्रसवेऽश्विनोर्बाहुभ्यां पूष्णो हस्ताभ्याम् । अग्नये जुष्टङ्गृह्णागृह्णाम्यग्नीषोमाभ्यां जुष्टङ्गृह्णामि ॥


    स्वर रहित पद पाठ

    देवस्य। त्वा। सवितुः। प्रसव इति प्रऽसवे। अश्विनोः। बाहुभ्यामिति बाहुभ्याम्। पूष्णः। हस्ताभ्याम्। अग्नये। जुष्टम्। गृह्णामि। अग्नीषोमाभ्याम्। जुष्टम्। गृह्णामि॥१०॥

    यजुर्वेद - अध्याय » 1; मन्त्र » 10
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    पदार्थ -

    यह संसार सर्वज्ञ एवं दयालु प्रभु का बनाया हुआ है, अतः न तो यहाँ अपूर्णता है और न ही कोई वस्तु हमारे लिए दुःखद है, परन्तु जब अल्पज्ञता व व्यसनासक्ति से हम वस्तुओं का ठीक प्रयोग नहीं करते तब ये वस्तुएँ हमारे लिए दुःखद हो जाती हैं, इसलिए प्रभु-भक्त निश्चय करता है कि १. मैं ( त्वा ) = तुझे-संसार के प्रत्येक पदार्थ को ( गृह्णामि ) = ग्रहण करता हूँ, ( सवितुः देवस्य ) = उस उत्पादक देव की ( प्रसवे ) = अनुज्ञा में, अर्थात् मैं प्रत्येक पदार्थ का सेवन प्रभु के निर्देशानुसार करता हूँ। प्रभु का आदेश है — ‘न अतियोग करना, न अयोग करना, प्रत्येक वस्तु का ‘यथायोग’ करना। गीता के शब्दों में ‘युक्त आहार-विहारवाला होना’ — सदा मध्यमार्ग में चलना। 

    २. ( अश्विनोः ) = प्राणापान की ( बाहुभ्याम् ) = बाहुओं से मैं प्रत्येक पदार्थ का ग्रहण करता हूँ, अर्थात् अपने पुरुषार्थ से कमाकर ही मैं किसी वस्तु को लेने की इच्छा करता हूँ। 

    ३. ( पूष्णोः हस्ताभ्याम् ) = पूषा के हाथों से मैं किसी वस्तु का ग्रहण करता हूँ, अर्थात् किसी भी वस्तु को स्वाद व सौन्दर्य के लिए न लेकर मैं पोषण के दृष्टिकोण से ही उसे ग्रहण करता हूँ। 

    ४. ( अग्नये ) = अग्नि के लिए ( जुष्टम् ) = सेवन की गई वस्तु को ( गृह्णामि ) = ग्रहण करता हूँ, अर्थात् प्र्रत्येक वस्तु को यज्ञ में विनियुक्त करके मैं यज्ञशेष का ही सेवन करनेवाला बनता हूँ। यज्ञशेष ही ‘अमृत’ है।

    ५. ( अग्निषोमाभ्यां जुष्टं गृह्णामि ) = मैं उस वस्तु को ग्रहण करता हूँ जो अग्नि व सोम के लिए सेवित होती है। हमारे जीवनों में दो मुख्य तत्त्व हैं — अग्नि और सोम। आयुर्वेद में इसी कारण से सब भोजन ‘आग्नेय’ और ‘सौम्य’ — इन्हीं दो भागों में बाँटे गये हैं। आग्नेय अंश शक्ति देता है तो सौम्य अंश शान्ति व दीर्घ जीवन का कारण बनता है। मैं उस भोजन का ग्रहण करता हूँ जिसमें ये दोनों ही तत्त्व उचित मात्रा में विद्यमान होते हैं। ऐसे भोजन के ग्रहण से मेरा जीवन रसमय बन जाता है।

    भावार्थ -

    भावार्थ — प्रभु की आज्ञा में, प्रयत्नपूर्वक, पोषण के दृष्टिकोण से, मैं पदार्थों का ग्रहण करता हूँ, यज्ञशिष्ट को ही ग्रहण करता हूँ और शान्ति व शक्ति के लिए ही ग्रहण करता हूँ।

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