यजुर्वेद - अध्याय 1/ मन्त्र 31
ऋषिः - परमेष्ठी प्रजापतिर्ऋषिः
देवता - यज्ञो देवता सर्वस्य
छन्दः - जगती अनुष्टुप्,
स्वरः - निषादः
2
स॒वि॒तुस्त्वा॑ प्रस॒वऽउत्पु॑ना॒म्यच्छि॑द्रेण प॒वित्रेण॒ सूर्य्य॑स्य र॒श्मिभिः॑। स॒वि॒तुर्वः॑ प्र॒स॒वऽउत्पु॑ना॒म्यच्छि॑द्रेण प॒वित्रे॑ण॒ सूर्य्य॑स्य र॒श्मिभिः॑। तेजो॑ऽसि शु॒क्रम॑स्य॒मृत॑मसि॒ धाम॒ नामा॑सि प्रि॒यं दे॒वाना॒मना॑धृष्टं देव॒यज॑नमसि॥३१॥
स्वर सहित पद पाठस॒वि॒तुः त्वा॒। प्र॒स॒व इति॑ प्रऽस॒वे। उत्। पु॒ना॒मि॒। अच्छि॑द्रेण। प॒वित्रे॑ण। सूर्य्य॑स्य। र॒श्मिभि॒रिति॑ र॒श्मिऽभिः॑। स॒वि॒तुः। वः॒। प्र॒स॒व इति॑ प्रऽस॒वे। उत्। पु॒ना॒मि॒। अच्छि॑द्रेण। प॒वित्रे॑ण। सूर्य्य॑स्य। र॒श्मिभि॒रिति॑ र॒श्मिभिः॑। ते॑जः। अ॒सि॒। शु॒क्रम्। अ॒सि॒। अ॒मृत॑म्। अ॒सि॒। धाम॑। नाम॑। अ॒सि॒। प्रि॒यम्। दे॒वाना॑म्। अना॑धृष्टम्। दे॒व॒यज॑न॒मिति॑ देव॒ऽयजन॑म्। अ॒सि॒ ॥३१॥
स्वर रहित मन्त्र
सवितुस्त्वा प्रसवऽउत्पुनाम्यच्छिद्रेण पवित्रेण सूर्यस्य रश्मिभिः । सवितुर्वः प्रसवऽउत्पुनाम्यच्छिद्रेण पवित्रेण सूर्यस्य रश्मिभिः । तेजोसि शुक्रमस्यमृतमसि धाम नामासि प्रियन्देवानामनाधृष्टन्देवयजनमसि ॥
स्वर रहित पद पाठ
सवितुः त्वा। प्रसव इति प्रऽसवे। उत्। पुनामि। अच्छिद्रेण। पवित्रेण। सूर्य्यस्य। रश्मिभिरिति रश्मिऽभिः। सवितुः। वः। प्रसव इति प्रऽसवे। उत्। पुनामि। अच्छिद्रेण। पवित्रेण। सूर्य्यस्य। रश्मिभिरिति रश्मिभिः। तेजः। असि। शुक्रम्। असि। अमृतम्। असि। धाम। नाम। असि। प्रियम्। देवानाम्। अनाधृष्टम्। देवयजनमिति देवऽयजनम्। असि॥३१॥
विषय - अनाधृष्ट देवयजन—हवा-धूप
पदार्थ -
१. ( सवितुः ) = उस उत्पादक प्रभु के ( प्रसवे ) = इस उत्पन्न जगत् में ( अच्छिद्रेण पवित्रेण ) = छिद्ररहित [ gap से शून्य ] अथवा निर्दोष वायु से तथा ( सूर्यस्य रश्मिभिः ) = सूर्य की किरणों से ( त्वा ) = तुझे ( उत्पुनामि ) = सब मलों व रोगों से ऊपर उठाकर [ उत् = out ] पवित्र करता हूँ। ‘खुली हवा’ और ‘सूर्य की किरणें’—ये स्वास्थ्य के मूलमन्त्र हैं।
२. तुझे ही क्यों ? ( वः ) = तुम सबको ( सवितुः प्रसवे ) = उस उत्पादक प्रभु के इस जगत् में ( उत्पुनामि ) = सब मलों से ऊपर उठाकर पवित्र करता हूँ। [ क ] ( अच्छिद्रेण पवित्रेण ) = इस निर्दोष वायु से और [ ख ] ( सूर्यस्य रश्मिभिः ) = सूर्य की किरणों द्वारा।
व्यक्ति के स्वास्थ्य के लिए समुदाय का स्वास्थ्य आवश्यक है। यदि मेरे चारों ओर के व्यक्ति अस्वस्थ होंगे तो उनके रोग-कृमियों का मुझपर भी आक्रमण होगा। मैं रोगों से बचा न रह सकूँगा। मैं स्वस्थ होऊँ, सब स्वस्थ हों, सारा वातावरण स्वास्थ्यमय हो।
३. इस स्वस्थ पुरुष को प्रेरणा देते हुए प्रभु कहते हैं कि ( तेजो असि ) = तू तेजस्वी है। स्वास्थ्य मनुष्य की तेजस्विता का कारण बनता ही है।
४. ( शुक्रम् असि ) = तू वीर्यवान् है। अथवा [ शुक् गतौ ] तू क्रियाशील है।
५. ( अमृतम् असि ) = तू अमृत है। तू रोगरूप मृत्युओं का शिकार नहीं होता।
६. ( धाम असि ) = तू तेज का पुञ्ज है, परन्तु साथ ही ( नाम ) = विनम्र स्वभाव है, तेरी शक्ति विनय से सुभूषित है।
७. इस प्रकार ( देवानां प्रियम् ) = देवताओं का प्रिय है। दिव्य गुणों का तू निवास-स्थान है।
८. ( अनाधृष्टम् ) = धर्षित न होनेवाला ( देवयजनम् असि ) = तू देवों के यज्ञ को करनेवाला है, अर्थात् तू निरन्तर देवयज्ञ करता है, तेरा अग्निहोत्र अविच्छिन्न रहता है। ‘सब पदार्थों को ये देव ही तो तुझे प्राप्त कराते हैं’ इस भावना को न भूलते हुए तू इन सब पदार्थों को देवों के लिए देकर सदा यज्ञशेष को ही खानेवाला बनता है।
भावार्थ -
भावार्थ — हमारा जीवन ‘अनाधृष्ट, देवयजन’ — निरन्तर चलनेवाले अग्निहोत्रवाला हो। हम यह न भूलें कि ‘देवऋण’ से अनृण होने के लिए यह अग्निहोत्र एक जरामर्य सत्र है। इससे हम अत्यन्त वार्धक्य व मृत्यु होने पर ही मुक्त होंगे।
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