यजुर्वेद - अध्याय 1/ मन्त्र 4
ऋषिः - परमेष्ठी प्रजापतिर्ऋषिः
देवता - विष्णुर्देवता
छन्दः - अनुष्टुप्
स्वरः - गान्धारः
2
सा वि॒श्वायुः॒ सा वि॒श्वक॑र्मा॒ सा वि॒श्वधा॑याः। इन्द्र॑स्य त्वा भा॒गꣳ सोमे॒नात॑नच्मि॒ विष्णो॑ ह॒व्यꣳर॑क्ष॥४॥
स्वर सहित पद पाठसा। वि॒श्वायु॒रिति॑ वि॒श्वऽआ॑युः। सा। वि॒श्वक॒र्मेति॑ वि॒श्वऽक॑र्मा। सा। विश्वधा॑या॒ इति॑ वि॒श्वऽधा॑याः। इन्द्र॑स्य। त्वा॒। भा॒गं। सोमे॑न। आ। त॒न॒च्मि॒। विष्णो॒ इति॒ वि॒ष्णो॑। ह॒व्यं। र॒क्ष॒ ॥४॥
स्वर रहित मन्त्र
सा विश्वायुः सा विश्वकर्मा सा विश्वधायाः । इन्द्रस्य त्वा भागँ सोमेना तनच्मि विष्णो हव्यँ रक्ष ॥
स्वर रहित पद पाठ
सा। विश्वायुरिति विश्वऽआयुः। सा। विश्वकर्मेति विश्वऽकर्मा। सा। विश्वधाया इति विश्वऽधायाः। इन्द्रस्य। त्वा। भागं। सोमेन। आ। तनच्मि। विष्णो इति विष्णो। हव्यं। रक्ष॥४॥
विषय - वेदवाणी
पदार्थ -
१. जिस वेदवाणी के दोहन का पिछले मन्त्र में वर्णन है ( सा ) = वह वेदवाणी ( विश्वायुः ) = ‘विश्वम् आयुः यस्याः’ = सम्पूर्ण जीवन का वर्णन करनेवाली है, जीवन के किसी भी पहलू को उसमें छोड़ा नहीं गया। ब्राह्मण आदि वर्ण और ब्रह्मचर्य आदि आश्रमों के कर्त्तव्यों का इस वाणी में उल्लेख है, पति-पत्नी, भाई-भाई, भाई-बहिन, पिता-पुत्र, आचार्य-शिष्य, ग्राहक-दुकानदार, राजा-प्रजा सभी के कर्त्तव्यों का वर्णन वहाँ मिलता है।
२. ( सा विश्वकर्मा ) = यह वेदवाणी सभी के कर्मों का वर्णन करती है। अधिकारों पर यह बल नहीं देती। वस्तुतः जीवन को सुन्दर बनाने के लिए आवश्यक है कि प्रत्येक व्यक्ति अपने कर्त्तव्य पर बल दे और अधिकार की चर्चा न करे। इसी को दूसरे शब्दों में इस प्रकार कहते हैं कि —‘कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन’ [ गीता ]। तुम्हारा अधिकार कर्म का ही है, फल का नहीं।
३. इस कर्त्तव्यभावना को जागरित करने के लिए ( सा विश्वधायाः ) = यह वेदवाणी सम्पूर्ण ज्ञान-दुग्ध को पिलानेवाली है [ विश्व+धेट् पाने ]। इसमें सब सत्यविद्याओं का ज्ञान दिया गया है। यह व्यापक ज्ञान देनेवाली है। वेदवाणी का नाम ‘गौ’ भी है, ज्ञान इसका दूध है। अपने ज्ञान-दुग्ध से यह सबका पालन व धारण करती है। वेदवाणी का वर्णन करके प्रभु कहते हैं कि ( इन्द्रस्य भागम् त्वा ) = परमैश्वर्यशाली मुझ प्रभु के ही अंश = छोटेरूप तुझे ( सोमेन ) = सोम के द्वारा ( आतनच्मि ) = [ तंच् ] टंच बना देता हूँ — बिल्कुल ठीक-ठाक कर देता हूँ। आहार का अन्तिम सार ही यह वीर्य है। इसके द्वारा प्रभु हमारे शरीर को स्वस्थ बनाते हैं। सोमरक्षा से हमारे मनों में ईर्ष्या-द्वेष उत्पन्न नहीं होता। सोमरूप ज्ञानाङ्गिन के ईंधन को पाकर हमारा मस्तिष्क दीप्त हो उठता है। एवं, सोम से मनुष्य का शरीर, मन व मस्तिष्क सभी कुछ ठीक-ठीक हो जाता है।
४. उल्लिखित त्रिविध उन्नति करनेवाला यह त्रिविक्रम ‘विष्णु’ बनता है। इस विष्णु से प्रभु कहते हैं कि ( हे विष्णो ) = व्यापक उन्नति करनेवाले जीव! ( हव्यम् रक्ष ) = तू अपने जीवन में सदा यज्ञ की रक्षा करना, अपने जीवन से कभी यज्ञ को विलुप्त न होने देना। ‘पुरुषो वाव यज्ञः’ पुरुष है ही यज्ञरूप। यज्ञ से ही तू उस यज्ञरूप प्रभु की उपासना कर पाएगा।
भावार्थ -
भावार्थ — वेदवाणी सम्पूर्ण जीवन का विचार करती है, कर्मों पर बल देती है, ज्ञान-दुग्ध का पान कराती है। सोम से हम पूर्ण स्वस्थ बनकर प्रभु के ही छोटे रूप बनते हैं। व्यापक उन्नति करते हुए हम हव्य की रक्षा करें, अर्थात् हमारा जीवन सदा यज्ञमय हो।
इस भाष्य को एडिट करेंAcknowledgment
Book Scanning By:
Sri Durga Prasad Agarwal
Typing By:
N/A
Conversion to Unicode/OCR By:
Dr. Naresh Kumar Dhiman (Chair Professor, MDS University, Ajmer)
Donation for Typing/OCR By:
N/A
First Proofing By:
Acharya Chandra Dutta Sharma
Second Proofing By:
Pending
Third Proofing By:
Pending
Donation for Proofing By:
N/A
Databasing By:
Sri Jitendra Bansal
Websiting By:
Sri Raj Kumar Arya
Donation For Websiting By:
Shri Virendra Agarwal
Co-ordination By:
Sri Virendra Agarwal