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  • यजुर्वेद - अध्याय 27/ मन्त्र 22
    ऋषिः - प्रजापतिर्ऋषिः देवता - इन्द्रो देवता छन्दः - निचृदुष्णिक् स्वरः - ऋषभः
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    अग्ने॒ स्वाहा॑ कृणुहि जातवेद॒ऽ इन्द्रा॑य ह॒व्यम्।विश्वे॑ दे॒वा ह॒विरि॒दं जु॑षन्ताम्॥२२॥

    स्वर सहित पद पाठ

    अग्ने॑। स्वाहा॑। कृ॒णु॒हि॒। जा॒त॒वे॒द॒ इति॑ जातऽवेदः। इन्द्रा॑य। ह॒व्यम्। विश्वे॑। दे॒वाः। ह॒विः। इ॒दम्। जु॒ष॒न्ता॒म् ॥२२ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    अग्ने स्वाहा कृणुहि जातवेदोऽइन्द्राय हव्यम् । विश्वे देवा हविरिदञ्जुषन्ताम् ॥


    स्वर रहित पद पाठ

    अग्ने। स्वाहा। कृणुहि। जातवेद इति जातऽवेदः। इन्द्राय। हव्यम्। विश्वे। देवाः। हविः। इदम्। जुषन्ताम्॥२२॥

    यजुर्वेद - अध्याय » 27; मन्त्र » 22
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    पदार्थ -
    १. (अग्ने) = हे प्रगतिशील जीव ! (स्वाहा कृणुहि) = 'अग्नये स्वाहा' आदि स्वाहाकार मन्त्रों से स्वाहा करनेवाला बन। यह ध्यान रख कि अपना त्याग 'स्वस्य हा' अपने लिये त्याग है, अर्थात् इस त्याग से हमारा अपना ही लाभ है। २. हे (जातवेद) = उत्पन्न धनवाले व्यक्ति ! तू (इन्द्राय) = राष्ट्र के शत्रुओं का विद्रावण करेनवाले राजा के लिए (हव्यम्) = कर [ Tax] को (कृणुहि) = स्वयं देनेवाला हो, अर्थात् तूने धन कमाया है, तू जातवेद [विद् लाभे] बना है, तो इस धन में से राष्ट्रकार्य के सञ्चालन के लिए उचित कर तुझे देना ही चाहिए। ३. तुझसे दी हुई (इदम् हविः) = इस हवि को (विश्वेदेवाः) = सब देव, दिव्य वृत्तिवाले लोग (जुषन्ताम्) = प्रीतिपूर्वक सेवन करें, अर्थात् तेरे घर में 'अतिथियज्ञ' नियमपूर्वक चले । 'अग्ने स्वाहा कृणुहि' शब्दों से देवयज्ञ का निर्देश हुआ है, 'इन्द्राय हव्यम्' से ब्रह्मयज्ञ का, चूँकि करमें दिये गये धन से ही राष्ट्र में ब्रह्म, अर्थात् ज्ञान का प्रचार होगा तथा 'विश्वदेवाः जुषन्ताम्' शब्दों से अतिथियज्ञ ध्वनित हुआ है। एवं इन तीन यज्ञों में हमारा धन उदारतापूर्वक व्ययित हो । 'विश्वेदेवा: ' शब्दों में माता-पिता भी देव होने से आ जाते हैं, अतः पितृयज्ञ भी यहाँ सङ्कलित हो जाता है।

    भावार्थ - भावार्थ- हम धन को कमाएँ और उस धन को देवयज्ञ, ब्रह्मयज्ञ व अतिथि आदि यज्ञों में विनियुक्त करें।

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