यजुर्वेद - अध्याय 27/ मन्त्र 4
ऋषिः - अग्निर्ऋषिः
देवता - अग्निर्देवता
छन्दः - स्वराट् त्रिष्टुप्
स्वरः - धैवतः
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इ॒हैवाग्ने॒ऽ अधि॑ धारया र॒यिं मा त्वा॒ निक्र॑न् पूर्व॒चितो॑ निका॒रिणः॑। क्ष॒त्रम॑ग्ने सुयम॑मस्तु॒ तुभ्य॑मुपस॒त्ता व॑र्द्धतां ते॒ऽअनि॑ष्टृतः॥४॥
स्वर सहित पद पाठइ॒ह। ए॒व। अ॒ग्ने॒। अधि॑। धा॒र॒य॒। र॒यिम्। मा। त्वा॒। नि। क्र॒न्। पू॒र्व॒चित॒ इति॑ पूर्व॒ऽचितः॑। नि॒का॒रिण॒ इति॑ निऽका॒रिणः॑ ॥ क्ष॒त्रम्। अ॒ग्ने॒। सु॒यम॒मिति॑ सु॒ऽयम॑म्। अ॒स्तु॒। तुभ्य॑म्। उ॒प॒स॒त्तेत्यु॑पऽस॒त्ता। व॒र्द्ध॒ता॒म्। ते॒। अनि॑ष्टृतः। अनि॑स्तृत॒ इत्यनि॑ऽस्तृतः ॥४ ॥
स्वर रहित मन्त्र
इहैवाग्नेऽअधि धारया रयिम्मा त्वा निक्रन्पूर्वचितो निकारिणः । क्षत्रमग्ने सुयममस्तु तुभ्यमुपसत्ता वर्धतान्तेऽअनिष्टृतः ॥
स्वर रहित पद पाठ
इह। एव। अग्ने। अधि। धारय। रयिम्। मा। त्वा। नि। क्रन्। पूर्वचित इति पूर्वऽचितः। निकारिण इति निऽकारिणः॥ क्षत्रम्। अग्ने। सुयममिति सुऽयमम्। अस्तु। तुभ्यम्। उपसत्तेत्युपऽसत्ता। वर्द्धताम्। ते। अनिष्टृतः। अनिस्तृत इत्यनिऽस्तृतः॥४॥
विषय - १. हे (अग्ने) = अपने राष्ट्र को उन्नत करनेवाले जीव ! (इह एव) = अपने राष्ट्र में ही (रयिम्) = धन को (अधिधारया) = आधिक्येन धारण कर । तू यथासम्भव अपनी देशज वस्तुओं का ही प्रयोग कर, जिससे रुपया विदेश में न जाए। २. तेरा सारा व्यवहार ऐसा हो कि (पूर्वचित:) = पूर्वनाम में, ब्रह्मचर्याश्रम में तीन बार नाचिकेतस् अग्नि का चयन करनेवाले, अर्थात् सबसे पूर्व ५ वर्ष तक माता के शिक्षणालय में सच्चरित्रता की अग्नि का चयन करनेवाले, इसके बाद ८ वर्ष तक पिता के शिक्षाणालय में शिष्टाचार की अग्नि का चयन करनेवाले और अन्त में आचार्य के शिक्षणालय में ज्ञानादि का चयन करनेवाले पूर्वचित लोग, जो (निकारिण:) = नितरां यज्ञकरणशील हैं अथवा ज्ञान व कर्म के समुच्चय के अतिशय से जो औरों को नीचा दिखानेवाले हैं, अर्थात् जीत जानेवाले हैं। वे (त्वा) = तुझे (मा निक्रम्) = नीचा करनेवाले न हों, अर्थात् तू उनसे पराजित न किया जा सके, तू स्वयं 'सच्चरित्रता, शिष्टाचार व ज्ञानरूप अग्नियों' का चयन करनेवाला बन तथा तेरा जीवन नितरां यज्ञशील हो । ३. हे अग्ने! (तुभ्यम्) = तेरे लिए (सुयमम्) = उत्तम संयमवाला (क्षत्रम्) = बल अस्तु हो, संयम से उत्पन्न बल तुझे सब क्षत्रों से बचानेवाला हो। ४. तेरा व्यवहार सदा ऐसा हो कि (ते उपसत्ता) = तेरे समीप रहनेवाला तेरा पड़ोसी भी (अनिष्टृतः) = किसी प्रकार से हिंसित न होता हुआ (वर्धताम्) = बढ़नेवाला हो ।
पदार्थ -
भावार्थ- हम राष्ट्र का रुपया, स्वदेशी का प्रयोग करते हुए, राष्ट्र में ही रखने का प्रयत्न करें। हम 'सच्चरित्र, शिष्टाचार व ज्ञान में आगे बढ़कर यज्ञशील हों, संयम के द्वारा बल की साधना करें तथा हमारा कोई भी व्यवहार पड़ोसी की हिंसा करनेवाला न हो।
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